अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:08 – राष्ट्रधारण सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[८ – राष्ट्रधारण सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता -मित्र (१ पृथिवी, वरुण, वायु, अग्नि, २ धाता, सविता, इन्द्र, त्वष्टा, अदिति,३ सोम, सविता, आदित्य, अग्नि, ४ विश्वेदेवा, ५-६ मन)। छन्द – त्रिष्टुप् , २,६ जगती, ४ चतुष्पदा विराट् बृहतीगर्भा
त्रिष्टुप्,५ अनुष्टुप्।]
४०९. आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमान: संवेशयन् पृथिवीमुस्रियाभिः।
अथास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्बृहद् राष्ट्र संवेश्यं दधातु॥१॥
मित्रदेव अपनी रश्मियों के द्वारा पृथ्वी को संव्याप्त करते हुए ऋतुओं के द्वारा हमें दीर्घजीवी बनाने में सक्षम होकर पधारें। इसके बाद वरुणदेव, वायुदेव तथा अग्निदेव हमारे लिए शान्तिदायक बृहत् राष्ट्र को सुस्थिर करें॥१॥
४१०. धाता रातिः सवितेदं जुषन्तामिन्द्रस्त्वष्टा प्रति हर्यन्तु मे वचः।
हुवे देवीमदितिं शूरपुत्रां सजातानां मध्यमेष्ठा यथासानि॥२॥
सबके धारणकर्ता धातादेव, दानशील अर्यमादेव तथा सर्वप्रेरक सवितादेव हमारी आहुतियों को स्वीकार करें। इन्द्रदेव तथा त्वष्टादेव हमारी स्तुतियों को सुनें। शूरपुत्रों की माता देवी अदिति का हम आवाहन करते हैं, जिससे सजातियों के बीच में हम सम्माननीय बन सकें ॥२॥
४११. हुवे सोमं सवितारं नमोभिर्विश्वानादित्याँ अहमुत्तरत्वे।
अयमग्निर्दीदायद् दीर्घमेव सजातैरिद्धोऽप्रतिब्रुवद्भिः॥३॥
प्रयोग करने वाले याजक को अत्यधिक श्रेष्ठता दिलाने के लिए हम सोमदेव, सवितादेव तथा समस्त आदित्यों को नमनपूर्वक आहूत करते हैं । हवियों के आधारभूत अग्निदेव प्रज्वलित हों, जिससे सजातियों के द्वारा हम चिरकाल तक वृद्धि को प्राप्त करते रहें॥३॥
४१२. इहेदसाथ न परो गमाथेयों गोपाः पुष्टपतिर्व आजत्।
अस्मै कामायोप कामिनीर्विश्वे वो देवा उपसंयन्तु॥४॥
हे शरीर या राष्ट्र में रहने वाली प्रजाओ-शक्तियो! आप यहीं रहें, दूर न जाएँ। अन्न या विद्याओं से युक्त गौ (गाय, पृथ्वी अथवा इन्द्रियों) के रक्षक, पुष्टि प्रदाता आपको लाएँ। कामनायुक्त आप प्रजाओं को इस कामना की पूर्ति के लिए विश्वेदेव, एक साथ संयुक्त करें॥४॥
४१३. सं वो मनांसि सं व्रता समाकूतीर्नमामसि।
अमी ये विव्रता स्थन तान् वः सं नमयामसि॥५॥
(हे मनुष्यो!) हम आपके विचारों, कर्मों तथा संकल्पों को एक भाव से संयुक्त करते हैं। पहले आप जो विपरीत कर्म करते थे, उन सबको हम श्रेष्ठ विचारों के माध्यम से अनुकूल करते हैं॥५॥
४१४. अहं गृभ्णामि मनसा मनांसि मम चित्तमनु चित्तेभिरेत।
मम वशेषु हृदयानि वः कृणोमि मम यातमनुवर्त्मान एत॥६॥
हम अपने मन में आपके मन को धारण (एक रूप) करते हैं। आप भी हमारे चित्त के अनुकूल अपने चित्त को बनाकर पधारे। आपके हृदयों को हम अपने वश में करते हैं। आप हमारे अनुकूल चलने वाले होकर पधारें॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य