अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:09 – दुःखनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[९- दुःखनाशन सूक्त]
[ ऋषि – वामदेव। देवता – द्यावापृथिवी, विश्वेदेवा। छन्द – अनुष्टुप ४ चतुष्पदा निवृत् बृहती, ६ भुरिक् अनुष्टुप्।]
कौशिक सूत्र में इस सूक्त के साथ ‘अरलु’ वृक्ष की मणि बाँधकर विष्कंध रोग के निवारण का प्रयोग सुझाया गया है। सायणादि आचायों ने मंत्रार्थ उक्त क्रिया को लक्ष्य करके ही किये हैं; किन्तु मूल मंत्रों में ‘अरलु मणि’ का कोई उल्लेख नहीं है। मंत्रों में रोग निरोधक प्राण शक्ति धारण करने का भाव परिलक्षित होता है। उसे धारण करने के सूत्र भी दिए गए हैं। अरलु मणि से भी उसमें सहायता मिलती होगी, इसलिए उसे इन मंत्रों के साथ बाँधने का विधान बनाया गया होगा। मंत्रार्थों के व्यापक अर्थ करना ही युक्ति संगत लगता है-
४१५. कर्शफस्य विशफस्य द्यौष्पिता पृथिवी माता।
यथाभिचक्र देवास्तथाप कृणुता पुनः॥१॥
कृशफ (निर्बल अथवा कृश खुरों-नाखूनों वाले) प्राणी, विशफ (बिना खुर वाले, रेंगने वाले, अथवा विशेष खुरों वाले) प्राणियों का पालन-पोषण करने वाले माता-पिता पृथ्वी तथा द्यौ हैं। हे देवताओ! जिस प्रकार आपने इन विघ्न-बाधाओं के कारणों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है, उसी प्रकार इन बाधाओं को हमसे दूर करें ॥१॥
[प्रकृति ने हर प्राणी को किसी प्रयोजन से बनाया है तथा उनके पालन की व्यवस्था की है। उनमें से अनेक प्राणी मनुष्यों के लिए बाधक भी बनते हैं। उनकी उपयोगिता बनाये रखकर बाधाओं के शमन की प्रार्थना देवशक्तियों से की गई है।]
४१६. अश्रेष्माणो अधारयन् तथा तन्मनुना कृतम्।
कृणोमि वध्नि विष्कन्धं मुष्काबर्हाे गवामिव॥२॥
न थकने वाले ही इस (मणि या रोग निरोधक शक्ति) को धारण करते हैं। मनु ने भी ऐसा ही किया था। हम विष्कंध आदि रोगों को उसी प्रकार निर्बल करते हैं, जैसे बैलों को बधिया बनाने वाले उन्हें काबू में करते हैं॥२॥
४१७. पिशङ्गे सूत्रे खृगलं तदा बध्नन्ति वेधसः।
श्रवस्युं शुष्मं काबवं वध्नि कृण्वन्तु बन्धुरः॥३॥
पिंगल (रंग वाले अथवा दृढ़) सूत्र से उस खगल (मणि अथवा दुर्धर्ष) को हम बाँधते हैं। इस प्रकार बाँधने वाले लोग प्रबल, शोषक रोग को निर्बल बनाएँ ॥३॥
४१८. येना श्रवस्यवश्चरथ देवा इवासुरमायया।
शुनां कपिरिव दूषणो बन्धुरा काबवस्य च॥४॥
हे यशस्वियो ! आप जिस प्रबल माया के द्वारा देवों की तरह आचरण करते हैं, उसी प्रकार बन्धन वाले (मणि बाँधने वाले अथवा अनुशासनबद्ध) व्यक्ति दूषणों (दोषों) और रोगों से मुक्त रहते हैं, जैसे बन्दर कुत्तों से मुक्त रहते हैं॥४॥
[कुत्ते अन्य भूचरों के लिए बड़े घातक तथा भय के कारण सिद्ध होते हैं; किन्तु बन्दर अपनी फुर्ती के आधार पर उनसे सहज ही अप्रभावित रहते हैं, उसी प्रकार रोग शामक क्षमतायुक्त व्यक्ति रोगों से अप्रभावित-निर्भय रह लेते हैं।]
४१९. दुष्ट्यै हि त्वा भत्स्यामि दूषयिष्यामि काबवम्।
उदाशवो रथा इव शपथेभिः सरिष्यथ॥५॥
हे मणि या रोगनाशक शक्ति ! दूसरों के द्वारा उपस्थित किए गए विघ्नों को असफल करने के लिए हम आपको धारण करते हैं। आपके द्वारा हम विघ्नों का निवारण करते हैं। (हे मनुष्यो!) द्रुतगामी रथों के समान आप विघ्नों से दूर होकर अपने कार्य में जुट जाएँ॥५॥
४२०. एकशतं विष्कन्धानि विष्ठिता पृथिवीमनु।
तेषां त्वामग्र उज्जहरुर्मणिं विष्कन्धदूषणम्॥६॥
धरती पर एक सौ एक प्रकार के विघ्न विद्यमान हैं। हे मणे ! उन विघ्नों के शमन के लिए देवताओं ने आपको ऊँचा उठाया (विशिष्ट पद दिया) है॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य