अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:10 – रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१० – रायस्पोषप्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – अष्टका (१ धेनु, २-४ रात्रि, धेनु, ५ एकाष्टका, ६ जातवेदा, पशुसमूह, ७ रात्रि, यज्ञ, ८ संवत्सर, ९ ऋतुएँ, १० धाता-विधाता, ऋतुएँ,११ देवगण, १२ इन्द्र, देवगण, १३ प्रजापति)। छन्द -अनुष्टुप् , ४-६, १२ त्रिष्टुप. ७ त्र्यवसाना षट्पदा विराट् गर्भातिजगती।]
इस सूक्त के देवता एकाष्टका तथा और भी अनेक देवता हैं । सूत्र ग्रन्थों के अनुसार इस सूक्त का उपयोग हवन विशेष में भी किया जाता है। वह प्रयोग माघ कृष्ण अष्टमी (जिसे अष्टका भी कहते हैं) पर किया जाता है। सूक्त में वर्णित एकाष्टका को इस अष्टका से जोड़कर अनेक आचार्यों ने मंत्रार्थ किये हैं। सूक्त के सूक्ष्म अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ‘अष्टका’ का अर्थ व्यापक होना चाहिए। इसकी संगति आठ प्रहर वाले अहोरात्र (दिन-रात) से बैठती है। इस सूक्त में काल (समय) के यजन का भाव आया है। उसकी मूल इकाई अहोरात्र (पृथ्वी का अपनी धुरी पर एक चक्र घूमने का समय) ही है। मंत्र क्रमांक ८ में एकाष्टका को संवत्सर की पत्नी कहकर सम्बोधित किया गया है, अत: एकाष्टका का व्यापक अर्थ प्रहरों का एक अष्टक, अहोरात्र अधिक सटीक बैठता है-
४२१. प्रथमा हव्यु वास सा धेनुरभवद् यमे।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥१॥
जो (एकाष्टका) प्रथम ही उदित हुई, वह नियमित स्वभाव वाली धेनु (गाय के समान धारण-पोषण करने वाली) सिद्ध हुई । वह पथ-प्रवाहित करने वाली (दिव्य धेनु) हमारे निमित्त उत्तरोत्तर पथ-प्रदायक बनी रहे॥१॥
४२२. यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्।
संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली॥२॥
आने वाली (एकाष्टका से सम्बन्धित) जिस रात्रि रूपी गौ को देखकर देवतागण आनन्दित होते हैं तथा जो संवत्सर रूप काल (समय) की पत्नी है, वह हमारे लिए श्रेष्ठ मंगलकारी हो॥२॥
४२३. संवत्सरस्य प्रतिमा यां त्वा रात्र्युपास्महे।
सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज॥३॥
हे रात्रे ! हम आपको संवत्सर की प्रतिमा मानकर आपकी उपासना करते हैं। आप हमारी सन्तानों को दीर्घायु प्रदान करें तथा हमें गवादि धन से संयुक्त करें॥३॥
४२४. इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा।
महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री॥४॥
यह (एकाष्टका) वही है, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई और (समय के) अन्य घटकों में समाहित होकर चलती है। इसके अन्दर अनेक महानताएँ हैं। वह नववधूकी तरह प्रजननशील तथा जयशील होकर चलती है॥४॥
[मास, ऋतु, संवत्सर आदि में एकाष्टका (अहोरात्र) समाहित रहती है। इसी से काल के अन्य घटक जन्म लेते हैं तथा यह सभी काल घटकों को अपने वश में रखती है।]
४२५. वानस्पत्या ग्रावाणो घोषमक्रत हविष्कॄण्वन्तः परिवत्सरीणम्।
एकाष्टके सुप्रजसः सुवीरा वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥५॥
संवत्सर में चलने वाले यज्ञ के लिए हवि तैयार करने के क्रम में वनस्पतियाँ तथा ग्रावा (पत्थर) ध्वनि कर रहे हैं । हे एकाष्टके !आपके अनुग्रह से हम श्रेष्ठ सन्तानों तथा वीरों से संयुक्त होकर प्रचुर धन के स्वामी हो॥५॥
४२६. इडायास्पदं घृतवत् सरीसृपं जातवेदः प्रति हव्या गृभाय।
ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपास्तेषां सप्तानां मयि रन्तिरस्तु॥६॥
भूमि पर गतिशील हे जातवेदा अग्निदेव ! आप हमारी गौ-घृतयुक्त आहुतियों को ग्रहण करके हर्षित हों। जो ग्राम (समूह) में रहने वाले नाना रूप वाले पशु हैं, उन (गौ, अश्व, भेड़, बकरी, पुरुष, गधा, ऊँट आदि) सातों प्रकार के प्राणियों का हमारे प्रति स्नेह बना रहे॥६॥
४२७. आ मा पुष्टे च पोषे च रात्रि देवानां सुमतौ स्याम।
पूर्णा दर्वे परा पत सुपूर्णा पुनरा पत। सर्वान् यज्ञान्त्संभुञ्जतीषमूर्ज न आ भर॥७॥
हे रात्रे ! आप हमें ऐश्वर्य तथा पुत्र-पौत्र आदि से परिपूर्ण करें। आपकी अनुकम्पा से हमारे प्रति देवताओं की सुमति (कल्याणकारी बुद्धि) बनी रहे । यज्ञ के साधनरूप हे दर्वि ! आप आहुतियों से सम्पन्न होकर देवों को प्राप्त हों । आप हमें इच्छित फल प्रदान करती हई हमारे समीप पधारें। उसके बाद आहतियों से तृप्ति को प्राप्त करके हमें अन्न और बल प्रदान करें॥७॥
४२८. आयमगन्त्संवत्सरः पतिरेकाष्टके तव। सा न आयुष्मती प्रजा रायस्पोषेण सं सृज॥८॥
हे एकाष्टके ! यह संवत्सर आपका पति बनकर यहाँ आया है। आप हमारी आयुष्मती सन्तानों को ऐश्वर्य से सम्पन्न करें॥८॥
४२९. ऋतून् यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्।
समाः संवत्सरान् मासान् भूतस्य पतये यजे॥९॥
हम ऋतुओं और उनके अधिष्ठाता देवताओं का हवि द्वारा पूजन करते हैं। संवत्सर के अंग रूप दिन-रात्रि का हम हवि द्वारा यजन करते हैं। ऋतु के अवयव-कला, काष्ठा, चौबीस पक्षों, संवत्सर के बारह महीनों तथा प्राणियों के स्वामी काल का हवि द्वारा यजन करते हैं ॥९॥
४३०. ऋतुभ्यष्ट्वार्तवेभ्यो माद्भयः संवत्सरेभ्यः।
धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे॥१०॥
हे एकाष्टके! माह, ऋतु, ऋतु से सम्बन्धित रात-दिन और वर्ष धाता, विधाता तथा समृद्ध-देवता और जगत् के स्वामी की प्रसन्नता के लिए हम आपका यजन करते हैं ॥१०॥
[ यहाँ समय के यजन का भाव महत्त्वपूर्ण है। समय जीवन की मूल सम्पदा है। उसे यज्ञीय कार्यों के लिए समर्पित करना श्रेष्ठ यजन कर्म है। इसे यज्ञीय सत्कार्यों के लिए समयदान कह सकते हैं।]
४३१. इडया जुह्वतो वयं देवान् घृतवता यजे। गृहानलुभ्यतो वयं सं विशेमोप गोमतः॥११॥
हम गो-घृत से युक्त हवियों के द्वारा समस्त देवताओं का यजन करते हैं। उन देवताओं की अनुकम्पा से हम असीम गौओं से युक्त घरों को ग्रहण करते हुए समस्त कामनाओं की पूर्ति का लाभ प्राप्त कर सकें॥११॥
४३२. एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम्।
तेन देवा व्यसहन्त शत्रून् हन्ता दस्यनामभवच्छचीपतिः॥१२॥
इस एकाष्टको ने तप के द्वारा स्वयं को तपाकर महिमावान् इन्द्रदेव को प्रकट किया। उन इन्द्रदेव की सामर्थ्य से देवों ने असुरों को जीता; क्योंकि वे शचीपति इन्द्रदेव रिपुओं को विनष्ट करने वाले हैं ॥१२॥
[इन्द्र संगठकदेव हैं। काल का गठन अहोरात्र रूप अष्टका ही करती है। यह इन्द्र की जन्मदात्री कही जा सकती है।]
४३३. इन्द्रपुत्रे सोमपुत्रे दुहितासि प्रजापतेः।
कामानस्माकं पूरय प्रति गृह्णाहि नो हविः॥१३॥
हे एकाष्टके ! हे इन्द्र जैसे पुत्र वाली ! हे सोम जैसे पुत्र वाली! आप प्रजापति की पुत्री हैं। आप हमारी आहुतियों को ग्रहण करके हमारी अभिलाषाओं को पूर्ण करें ॥१३॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य