अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:11 – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[११ – दीर्घायुप्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा, भृग्वङ्गिरा। देवता – इन्द्राग्नी, आयु, यक्ष्मनाशन। छन्द – त्रिष्टुप् , ४ शक्वरीगर्भा जगती, ५-६ अनुष्टुप् , ७ उष्णिक बृहतीगर्भा पथ्यापंक्ति, ८ त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा जगती।]
इस सूक्त में यज्ञीय प्रयोगों द्वारा रोग-निवारण तथा जीवनीशक्ति के संवर्द्धन का स्पष्ट उल्लेख किया गया है-
४३४. मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्।
ग्राहिर्जग्राह यद्येतदेनं तस्या इन्द्राग्नी प्र मुमुक्तमेनम्॥१॥
हे रोगिन्! तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट यक्ष्मा(रोग), राजयक्ष्मा (राज रोग) से मैं हवियों के द्वारा तुम्हें मुक्त करता हूँ। हे इन्द्रदेव और अग्निदेव ! पीड़ा से जकड़ लेने वाली इस व्याधि से रोगी को मुक्त कराएँ॥१॥
४३५. यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव।
तमा हरामि निर्ऋतेरुपस्थादस्पार्शमेनं शतशारदाय॥२॥
यह रोगग्रस्त पुरुष यदि मृत्यु को प्राप्त होने वाला हो या उसकी आयु क्षीण हो गई हो, तो भी मैं विनाश के समीप से वापस लाता हूँ। इसे सौ वर्ष की पूर्ण आयु तक के लिए सुरक्षित करता हूँ॥२॥
४३६. सहस्राक्षेण शतवीर्येण शतायुषा हविषाहार्षमेनम्।
इन्द्रो यथैनं शरदो नयात्यति विश्वस्य दुरितस्य पारम्॥३॥
सहस्र नेत्र तथा शतवीर्य एवं शतायुयुक्त हविष्य से मैंने इसे (आरोग्य को) उभारा है, ताकि यह संसार के सभी दुरितों (पापो-दुष्कर्मों) से पार हो सके। इन्द्रदेव इसे सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्रदान करें ॥३॥
[यज्ञीय सूक्ष्म विज्ञान से नेत्रशक्ति, वीर्य, आयुष्य सभी बढ़ते हैं। मनुष्य कष्टों को पार करके शतायु हो सकता है]
४३७. शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्ताञ्छतमु वसन्तान्।
शतं त इन्द्रो अग्निः सविता बृहस्पतिः शतायुषा हविषाहार्षमेनम्॥४॥
(हे प्राणी !) दीर्घायुष्य प्रदान करने वाली इस हवि के प्रभाव से मैं तुम्हें (नीरोग स्थिति में) वापस लाया हूँ। अब तुम निरन्तर वृद्धि करते हुए सौ वसन्त ऋतुओं, सौ हेमन्त ऋतुओं तथा सौ शरद ऋतुओं तक जीवित रहो। सर्वप्रेरक सवितादेव, इन्द्रदेव, अग्निदेव और बृहस्पतिदेव तुम्हें शतायु प्रदान करें।।४॥
४३८. प्र विशतं प्राणापानावनड्वाहाविव व्रजम्।
व्य१न्ये यन्तु मृत्यवो यानाहुरितराञ्छतम्॥५॥
हे प्राण और अपान! जैसे भार वहन करने वाले बैल अपने गोष्ठ में प्रवेश करते हैं, वैसे आप क्षयग्रस्त रोगी के शरीर में प्रवेश करें। मनुष्यगण मृत्यु के कारणरूप जिन सैकड़ों रोगों का वर्णन करते हैं, वे सभी दूर हो जाएँ॥५॥
४३९. इहैव स्तं प्राणापानौ माप गातमितो युवम्। शरीरमस्याङ्गानि जरसे वहतं पुनः॥६॥
हे प्राण और अपान ! आप दोनों इस शरीर में विद्यमान रहें। आप अकाल में भी इस शरीर का त्याग न करें। इस रोगी के शरीर तथा उसके अवयवों को वृद्धावस्था तक धारण करें॥६॥
४४०. जरायै त्वा परि ददामि जरायै नि धुवामि त्वा।
जरा त्वा भद्रा नेष्ट व्य१न्ये यन्तु मृत्यवो यानाहुरितराञ्छतम्॥७॥
(हे मनुष्य !) हम आपको वृद्धावस्था तक जीवित रहने योग्य बनाते हैं और वृद्धावस्था तक रोगों से आपकी सुरक्षा करते हैं। वृद्धावस्था आपके लिए कल्याणकारी हो। ज्ञानी मनुष्य मृत्यु के कारण रूप जिन रोगों के विषय में कहते हैं, वे समस्त रोग आप से दूर हो जाएँ॥७॥
४४१. अभि त्वा जरिमाहित गामुक्षणमिव रज्ज्वा। यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त
जायमानं सुपाशया। तं ते सत्यस्य हस्ताभ्यामुदमुञ्चद् बृहस्पतिः॥८॥
जैसे गौ या बैल को रस्सी द्वारा बाँधा जाता है, वैसे वृद्धावस्था ने आपको बाँध लिया है। जिस मृत्यु ने आपको पैदा होते ही अपने पाश द्वारा बाँध रखा है, उस पाश को बृहस्पतिदेव ब्रह्मा के अनुग्रह से मुक्त कराएँ॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य