November 28, 2023

अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:12 – शालानिर्माण सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१२ – शालानिर्माण सूक्त]

[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – शाला, वास्तोष्पति। छन्द – त्रिष्टुप्, २ विराट् जगती, ३ बृहती, ६ शक्वरीगर्भा जगती,७ आर्षी अनुष्टुप, ८ भुरिक् त्रिष्टुप्.९ अनुष्टुप्।]

इस सूक्त के ऋषि ‘ब्रह्मा’ (रचयिता) हैं तथा देवता ‘शाला’ एवं ‘वास्तोष्पति’ हैं। शाला (भवन) के निर्माण निर्वाह साधनों तथा उपयोग आदि का उल्लेख इस सूक्त में है। शाला का अर्थ व्यापक प्रतीत होता है-रहने का भवन, यज्ञशाला, ‘जीव आवासं देह’, विश्व आवास आदि के संदर्भ में मंत्रार्थों को समझा जा सकता है। मंत्रार्थ सामान्य शाला या यज्ञशाला के संदर्भ में ही किये गये हैं। कुछ मंत्र व्यापक अथों में ही अधिक सटीक बैठते हैं। विशिष्ट संदर्भो में संक्षिप्त टिप्पणियाँ आवश्यकतानुसार प्रस्तुत कर दी गई हैं-

४४२. इहैव ध्रुवां नि मिनोमि शालां क्षेमे तिष्ठाति घृतमुक्षमाणा।
तां त्वा शाले सर्ववीराः सुवीरा अरिष्टवीरा उप सं चरेम॥१॥

हम इसी स्थान पर सुदृढ़ शाला को बनाते हैं। वह शाला घृतादि (सार तत्त्वों) का चिन्तन करती हुई, हमारे कल्याण के लिए स्थित रहे। हे शाले! हम सब वीर आपके चारों ओर अनिष्टों से मुक्त होकर तथा श्रेष्ठ सन्तानों से सम्पन्न होकर विद्यमान रहें॥१॥

४४३. इहैव ध्रुवा प्रति तिष्ठ शालेऽश्वावती गोमती सूनृतावती।
ऊर्जस्वती घृतवती पयस्वत्युच्छ्रयस्व महते सौभगाय॥२॥

आप यहाँ अश्ववती (घोड़ों या शक्ति से युक्त), गोमती (गौओं अथवा पोषण-सामों से युक्त) तथा श्रेष्ठ वाणी (अभिव्यक्ति) से युक्त होकर दृढ़तापूर्वक रहें। ऊर्जा या अन्नयुक्त, घृतयुक्त तथा पयोयुक्त (सभी पोषक तत्त्वों से युक्त) होकर महान् सौभाग्य प्रदान करने के लिए उन्नत स्थान पर स्थिर रहें॥२॥

४४४. धरुण्यसि शाले बृहच्छन्दाः पूतिधान्या।
आ त्वा वत्सो गमेदा कुमार आ धेनवः सायमास्पन्दमानाः॥३॥

हे शाले!आप भोग-साधनों से सम्पन्न तथा विशाल छत वाली हैं।आप पवित्र धान्यों के अक्षय भण्डार वाली हैं। आपके अन्दर बच्चे तथा बछड़े आएँ और दूध देने वाली गौएँ भी सायंकाल कूदती हुई पधारें॥३॥

४४५. इमां शालां सविता वायुरिन्द्रो बृहस्पतिर्नि मिनोतु प्रजानन्।
उक्षन्तूदूना मरुतो घृतेन भगो नो राजा नि कृषिं तनोतु॥४॥

निर्माण करने की विधि को जानने वाले सवितादेव, वायुदेव, इन्द्रदेव तथा बृहस्पतिदेव इस शाला को विनिर्मित करें। मरुद्गण भी जल तथा घृत के द्वारा इसका सिंचन करें। इसके बाद भगदेवता इसे कृषि आदि क्रियाओं द्वारा सुव्यवस्थित बनाएँ॥४॥

४४६. मानस्य पत्नि शरणा स्योना देवी देवेभिर्निमितास्यग्रे।
तृणं वसाना सुमना असस्त्वमथास्मभ्यं सहवीरं रयिं दाः॥५॥

सम्माननीय (वास्तुपति) की पत्नी रूप हे शाले! आप धान्यों का पालन करने वाली हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में प्राणियों को हर्ष प्रदान करने, उनकी सुरक्षा करने तथा उनके उपभोग के लिए देवताओं ने आपका सृजन किया है। आप तृणों के वस्त्रवाली, श्रेष्ठ मनवाली हैं। आप हमें पुत्रों से युक्त ऐश्वर्य प्रदान करें॥५॥

[शाला के वस्त्र तृणों के हैं तथा मन श्रेष्ठ है। सामान्यतः तृण वस्त्र सादगी के प्रतीक व श्रेष्ठ मन शुभ-संकल्पों का द्योतक है। व्यापक अर्थों में पृथ्वी रूप शाला श्रेष्ठ मन वाली है, इसीलिए तृण उत्पन्न करती रहती है; ताकि प्राणियों का निर्वाह हो सके।]

४४७. ऋतेन स्थूणामधि रोह वंशोग्रो विराजन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून्।
मा ते रिषन्नुपसत्तारो गृहाणां शाले शतं जीवेम शरदः सर्ववीराः॥६॥

हे वंश (बाँस)! आप अबाध्य रूप से शाला के बीच स्तम्भ रूप में स्थिर रहें और उग्र बनकर प्रकाशित होते हुए (विकारों) रिपुओं को दूर करें। हे शाले ! आपके अन्दर निवास करने वाले हिंसित न हों और इच्छित सन्तानों से सम्पन्न होकर शतायु को प्राप्त करें॥६॥

[सामान्यत: वंश का अर्थ बाँस है, व्यापक अर्थ में वह उत्तम आनुवंशिक विशेषताओं वाला लिया जाने योग्य है।]

४४८. एमां कुमारस्तरुण आ वत्सो जगता सह।
एमां परिस्त्रुत: कुम्भ आ दध्नः कलशैरगुः॥७॥

इस शाला में तरुण बालक और गमनशील गौओं के साथ उनके बछड़े आएँ। इसमें मधुर रस से परिपूर्ण घड़े और दधि से भरे हुए कलश भी आएँ॥७॥

४४९. पूर्णं नारि प्र भर कुम्भमेतं घृतस्य धाराममृतेन संभृताम्।
इमां पातॄनमृतेना समङ्ग्धीष्टापूर्तमभि रक्षात्येनाम्॥८॥

हे स्त्री (नारी अथवा प्रकृति)! आप इस घट को अमृतोपम मधुर रस तथा घृत धारा से भली प्रकार भरें। पीने वालों को अमृत से तृप्त करें। इष्टापूर्त्त (इष्ट आवश्यकताओं की आपूर्ति) इस शाला को सुरक्षित रखती है॥८॥

४५०. इमा आपः प्रभराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनी:।गृहानुप प्रसीदाम्यमृतेन सहाग्निना॥९॥

हम स्वयं रोगरहित तथा रोगविनाशक जल को अनश्वर अग्निदेव के साथ घर में स्थित करते हैं ॥९॥

[घर में रोगनाशक जल तथा अग्नि का निवास आवश्यक है। शाला के व्यापक अर्थों में जीवन रस तथा अनश्वर ऊर्जा के सतत प्रवाह का भाव बनता है।]

– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!