अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:13 – आपो देवता सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१३ – आपो देवता सूक्त]
[ ऋषि – भृगु। देवता – वरुण, सिन्धु, आप; २,३ इन्द्र। छन्द – अनुष्टुप्.१ निचृत् अनुष्टुप्, ५ विराट जगती, ६ निचृत् त्रिष्टुप्।]
४५१. यददः संप्रयतीरहावनदता हते। तस्मादा नद्यो३ नाम स्थ ता वो नामानि सिन्धवः॥१॥
हे सरिताओ ! आप भली प्रकार से सदैव गतिशील रहने वाली हैं। मेघों के ताड़ित होने (बरसने) के बाद आप जो (कल-कल ध्वनि) नाद कर रही हैं; इसलिए आपका नाम ‘नदी’ पड़ा। वह नाम आपके अनुरूप ही है॥१॥
४५२.यत् प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत। तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनुष्ठन॥२॥
जब आप वरुणदेव द्वारा प्रेरित होकर शीघ्र ही मिलकर नाचती हुई सी चलने लगी, तब इन्द्रदेव ने आपको प्राप्त किया। इसी ‘आप्नोत्’ क्रिया के कारण आप का नाम ‘आप:’ पड़ा॥२॥
४५३. अपकामं स्यन्दमाना अवीवरत वो हि कम्।
इन्द्रो वः शक्तिभिर्देवीस्तस्माद् वार्नाम वो हितम्॥३॥
आप बिना इच्छा के सदैव प्रवाहित होने वाले हैं। इन्द्रदेव ने अपने बल के द्वारा आप का वरण किया। इसीलिए हे देवनशील जल ! आपका नाम ‘वारि’ पड़ा॥३॥
४५४. एको वो देवोऽप्यतिष्ठत् स्यन्दमाना यथावशम्।
उदानिषुर्महीरिति तस्मादुदकमुच्यते॥४॥
हे यथेच्छ (आवश्यकतानुसार) बहने वाले (जल तत्त्व) ! एक(श्रेष्ठ)देवता आपके अधिष्ठाता हुए। (देव संयोग से) महान् ऊर्ध्वश्वास (ऊर्ध्वगति) के कारण आपका नाम ‘उदक’ हुआ॥४॥
४५५. आपो भद्रा घृतमिदाप आसन्नग्नीषोमौ बिभ्रत्याप इत् ताः।
तीतो रसो मधुपृचामरंगम आ मा प्राणेन सह वर्चसा गमेत्॥५॥
(निश्चित रूप से) जल कल्याणकारी है, घृत (तेज प्रदायक) है। उसे अग्नि और सोम पुष्ट करते हैं। वह जल, मधुरता से पूर्ण तथा तृप्तिदायक तीव्र रस हमें प्राण तथा वर्चस् के साथ प्राप्त हो॥५॥
४५६. आदित् पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषो गच्छति वाङ्मासाम्।
मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः॥६॥
निश्चित रूप से मैं अनुभव करता हूँ कि उनके द्वारा उच्चरित शब्द हमारे कानों के समीप आ रहे हैं। चमकीले रंग वाले हे जल ! आप का सेवन करने के बाद, अमृतोपम भोजन के समान हमें तृप्ति का अनुभव हुआ॥६॥
४५७. इदं व आपो हृदयमयं वत्स ऋतावरीः।
इहेत्थमेत शक्वरीर्यत्रेदं वेशयामि वः॥७॥
हे जलप्रवाहो ! यह (तुष्टिदायक प्रभाव) आपका हृदय है। हे ऋत प्रवाही धाराओ ! यह (ऋत) आपका पुत्र है। हे शक्ति-प्रदायक धाराओ ! यहाँ इस प्रकार आओ, जहाँ तुम्हारे अन्दर इन (विशेषताओं) को प्रविष्ट करूं॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य