अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:14 – गोष्ठ सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१४- गोष्ठ सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – गोष्ठ, अह,(२ अर्यमा, पूषा, बृहस्पति, इन्द्र.१-६ गौ, ५ गोष्ठ)। छन्द – अनुष्टुप,६ आर्षी त्रिष्टुप्।]
इस सूक्त में गोष्ठ का वर्णन है। गो, गौओं को भी कहते हैं तथा इन्द्रियों को भी। इसी प्रकार गोष्ठ से गौशाला के साथ शरीर का भी भाव बनता है। मन्त्राओं को दोनों संदर्भों में लिया जा सकता है-
४५८. सं वो गोष्ठेन सुषदा सं रय्या सं सुभूत्या।
अहर्जातस्य यन्नाम तेना वः सं सृजामसि॥१॥
हे गौओ! हम आपको सुखपूर्वक बैठने योग्य गोशाला प्रदान करते हैं। हम आपको जल, समृद्धि तथा सन्तानों से सम्पन्न करते हैं॥१॥
४५९. सं वः सृजत्वर्यमा सं पूषा सं बृहस्पतिः।
समिन्द्रो यो धनञ्जयो मयि पुष्यत यद् वसु॥२॥
हे गौओ ! अर्यमा, पूषा और बृहस्पतिदेव आपको उत्पन्न करें तथा रिपुओं का धन जीतने वाले इन्द्रदेव भी आपको उत्पन्न करें। आपके पास क्षीर, घृत आदि के रूप में जो ऐश्वर्य है, उससे हम साधकों को पुष्टि प्रदान करें॥२॥
४६०.संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन् गोष्ठे करीषिणी:। बिभ्रती: सोम्यं मध्वनमीवा उपेतन॥३॥
हे गौओ! आप हमारी इस गोशाला में निर्भय होकर तथा पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न होकर चिरकाल तक जीवित रहें। आप गोबर पैदा करती हुई तथा नीरोग रहकर मधुर और सौम्य दुग्ध धारण करती हुई हमारे पास पधारें॥३॥
४६१. इहैव गाव एतनेहो शकेव पुष्यत। इहैवोत प्र जायध्वं मयि संज्ञानमस्तु वः॥४॥
हे गौओ! आप हमारे ही गोष्ठ में आएँ। जिस प्रकार मक्खी कम समय में ही अनेक गुना विस्तार कर लेती है, उसी प्रकार आप भी वंश वृद्धि को प्राप्त हों। आप इस गोशाला में बछड़ों से सम्पन्न होकर हम साधकों से प्रेम करें। हमें छोड़कर कभी न जाएँ॥४॥
४६२. शिवो वो गोष्ठो भवतु शारिशाकेव पुष्यत।
इहैवोत प्र जायध्वं मया वः सं सृजामसि॥५॥
हे गौओ! आपकी गोशाला आपके लिए कल्याणकारी हो, ‘शारिशाक’ (प्राणि- विशेष) के सदृश परिवार का असीमित विस्तार करके समृद्ध हों तथा यहाँ पर रहकर पुत्र-पौत्रादि उत्पन्न करें। हम आपका सृजन करते हैं॥५॥
४६३. मया गावो गोपतिना सचध्वमयं वो गोष्ठ इह पोषयिष्णुः।
रायस्पोषेण बहुला भवन्तीर्जीवा जीवन्तीरुप वः सदेम॥६॥
हे गौओ! आप मुझ गोपति के साथ एकत्रित रहें। यह गोशाला आपका पोषण करे। बहुत (संख्या वाली) होती हुई आप चिरकाल तक जीवित रहें। आपके साथ हम भी दीर्घ आयु को प्राप्त करें॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य