अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:15 – वाणिज्य सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१५- वाणिज्य सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता -विश्वेदेवा, इन्द्राग्नी (इन्द्र, पथ, अग्नि, प्रपण, विक्रय, देवगण, धन, प्रजापति, सविता, सोम, धनरुचि, वैश्वानर, जातवेदा)। छन्द – त्रिष्टप्.१ भुरिक् त्रिष्टुप, ४ त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा विराट् अत्यष्टि, ५ विराट् जगती, ७ अनुष्टुप्, ८ निचृत् त्रिष्टुप्।]
इस सूक्त के ऋषि पण्यकाम(व्यवहार की कामनावाले) अथर्वा हैं। इसमें परमेश्वर अथवा इन्द्राग्निको वणिज(व्यवसायी) कहा गया है । गीता की उक्ति ‘यो यथा मां प्रपद्यन्ते’ (जो मुझसे जिस प्रकार का व्यवहार करता है, मैं उससे उसी प्रकार का व्यवहार करता हूँ) तथा संत कबीर के अनुभव ‘साईं मेरा बानियाँ, सहज करे व्यापार’ आदि भी इसी आशय के हैं। हर व्यवसाय के कुछ आदर्श-अनुशासन होते हैं, उनको समझने और उनका परिपालन करने वाला लाभान्वित होता है। इस सूक्त में जीवनव्यवसाय में ईश्वर की साझेदारी के सूत्र दिए गए हैं-
४६४. इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि स न ऐतु पुरएता नो अस्तु।
नुदन्नरातिं परिपन्थिनं मृगं स ईशानो धनदा अस्तु मह्यम्॥१॥
हम व्यवसाय में कुशल इन्द्रदेव को प्रेरित करते हैं, वे हमारे पास पधारें, हमारे अग्रणी बनें । वे हमारे जीवन-पथ के अवरोध को, सताने वाले व्यक्तियों-भूचरों को विनष्ट करते हुए हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों॥१॥
४६५. ये पन्थानो बहवो देवयाना अन्तरा द्यावापृथिवी संचरन्ति।
ते मा जुषन्तां पयसा घृतेन यथा क्रीत्वा धनमाहराणि॥२॥
द्यावा-पृथिवी के बीच जो देवों के अनुरूप मार्ग हैं, वे सभी हमें घृत और दुग्ध से तृप्त करें। जिन्हें खरीदकर हम (जीवन व्यवसाय के द्वारा) प्रचुर धन-ऐश्वर्य प्राप्त कर सकें॥२॥
४६६. इध्मेनाग्न इच्छमानो घृतेन जुहोमि हव्यं तरसे बलाय।
यावदीशे ब्रह्मणा वन्दमान इमां धियं शतसेयाय देवीम्॥३॥
हे इन्द्राग्ने ! संकट से बचने तथा बल प्राप्ति की कामना से हम ईंधन एवं घृत सहित आपको हव्य प्रदान करते हैं। (यह आहुतियाँ तब तक देंगे) जब तक कि ब्रह्म द्वारा प्रदत्त दिव्य बुद्धि की वन्दना करते हुए हम सैकड़ों सिद्धियों पर अधिकार प्राप्त न कर लें॥३॥
[मनुष्य जीवन-व्यवसाय में लाभान्वित हो सके, इसके लिए परमात्मा ने उसे दिव्य मेधा दी है। उसे साधना, यज्ञादि प्रयोगों द्वारा जाग्रत् – प्रयुक्त करके सैकड़ों सिद्धियों को प्राप्त करना संभव है।]
४६७. इमामग्ने शरणि मीमृषो नो यमध्वानमगाम दूरम्।
शुनं नो अस्तु प्रपणो विक्रयश्च प्रतिपण: फलिनं मा कृणोतु।
इदं हव्यं संविदानौ जुषेथां शुनं नो अस्तु चरितमुत्थितं च॥४॥
हे अग्निदेव ! हमसे हई त्रुटियों के लिए आप हमें क्षमा करें। हम जिस मार्ग- सुदूर पथ पर आ गये हैं, वहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय हमारे लिए शुभ हो। हमारा हर व्यवहार हमें लाभ देने वाला हो। आप हमारे द्वारा समर्पित हवियों को स्वीकार करें। आपकी कृपा से हमारा आचरण उन्नति और सुख देने वाला हो॥४॥
४६८. येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः।
तन्मे भूयो भवतु मा कनीयोऽग्ने सातघ्नो देवान् हविषा निषेध॥५॥
हे देवगणो! आप लाभ के अवरोधक देवों को इस आहुति से संतुष्ट करके लौटा दें। हे देवताओ ! लाभ की कामना करते हुए हम जिस धन से व्यापार करते हैं, आपकी कृपा से हमारा वह धन कम न हो, बढ़ता ही रहे॥५॥
४६९.येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः।
तस्मिन् म इन्द्रो रुचिमा दधातु प्रजापतिः सविता सोमो अग्निः॥६॥
धन से धन प्राप्त करने की कामना करते हुए, हम जिस धन से व्यापार करना चाहते हैं, उसमें इन्द्रदेव, सवितादेव, प्रजापतिदेव, सोमदेव तथा अग्निदेव हमारी रुचि पैदा करें॥६॥
४७०. उप त्वा नमसा वयं होतर्वैश्वानर स्तुमः। स नः प्रजास्वात्मसु गोषु प्राणेषु जागृहि॥७॥
हे होता-वैश्वानर अग्निदेव! हम हवि समर्पित करते हुए आपकी प्रार्थना करते हैं। आप हमारी आत्मा, प्राण, तथा गौओं की सुरक्षा के लिए जागरूक रहें ॥७॥
४७१. विश्वाहा ते सदमिद्भरेमाश्वायेव तिष्ठते जातवेदः।
रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम॥८॥
हे जातवेदा अग्ने ! जैसे अपने स्थान पर बँधे हुए घोड़े को अन्न प्रदान करते हैं, वैसे हम आपको प्रतिदिन हवि प्रदान करते हैं। आपके सम्पर्क में रहते हुए तथा सेवा करते हुए हम धन-धान्य से समृद्ध रहें, कभी नष्ट न हों॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य