अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:17 – कृषि सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१७- कृषि सूक्त]
[ ऋषि – विश्वामित्र। देवता -सीता। छन्द – त्रिष्टुप.१ आर्षी गायत्री, ३ पथ्यापंक्ति,४,६ अनुष्टप.७ विराट् पुर उष्णिक, ८ निवृत् अनुष्टुप्।]
इस सूक्त में कृषि कर्मों का उल्लेख है। लौकिक कृषि के साथ-साथ आध्यात्मिक संदर्भ में भी मंत्रार्थ फलित होते हैं। दृश्य भूमि के साथ मनोभूमि की कृषि का भाव भी सिद्ध होता है। इस संदर्भ में हल-ध्यान, उसका फाल- प्राण, उपज-दिव्य वृत्तियों के अर्थ में लेने योग्य हैं-
४७९. सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नयौ॥१॥
कवि (दूरदर्शी), धीर पुरुष (कृषि के लिए) देवों की प्रसन्नता के लिए हलों को जोतते (नियोजित करते) हैं तथा युगों (जुओं या जोड़ों) को विशेष रूप से विस्तारित करते हैं ॥१॥
[स्थूल कृषि में हल से भूमि की कठोरता को तोड़ते हैं, सूक्ष्म कृषि में मन की कठोरता का उपचार करते हैं। मन से जुड़े पूर्वाग्रहों को अलग-अलग करते हैं।]
४८०. युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम्।
विराजः श्नुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत् सृण्यः पक्वमा यवन्॥२॥
(हे कृषको!) हलों को प्रयुक्त करो, युगों को फैलाओ। इस प्रकार तैयार उत्पादक क्षेत्र में बीजों का वपन करो। हमारे लिए भरपूर उपज हो। वे परिपक्व होकर काटने वाले उपकरणों के माध्यम से हमारे निकट आएँ ॥२॥
[जैसे कृषि की उपज पकने पर ही प्रयुक्त करने योग्य होती है, उसी प्रकार साधनाएँ भी परिपक्व होने पर ही प्रयुक्त की जाने योग्य होती हैं।]
४८१. लाङ्गलं पवीरवत् सुशीमं सोमसत्सरु।
उदिद् वपतु गामविं प्रस्थावद् रथवाहनं पीबरीं च प्रफर्व्यम्॥३॥
श्रेष्ठ फाल से युक्त (अथवा वज्र की तरह कठोर), सुगमता से चलने वाला, सोम (अन्न या दिव्य सोम) की प्रक्रिया को गुप्त रीति से सम्पादित करने वाला हल(हमें) पुष्ट ‘गौ’ (गाय, भूमि या इन्द्रियाँ), अवि’ (भेड़ या रक्षण सामर्थ्य), शीघ्र चलने वाले रथवाहन तथा नारी (अथवा चेतन शक्ति) प्रदान करे ॥३॥
४८२. इन्द्रः सीतां नि गृहणातु तां पूषाभि रक्षतु।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्॥४॥
इन्द्रदेव कृषि योग्य भूमि को सँभालें। पूषादेव उसकी देख-भाल करें, तब वह (धरित्री) श्रेष्ठ धान्य तथा जल से परिपूर्ण होकर हमारे लिए धान्य आदि का दोहन करे ॥४॥
४८३. शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान्।
शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै॥५॥
हल के नीचे लगी हुई, लोहे से विनिर्मित श्रेष्ठ ‘फालें’ खेत को भली-प्रकार से जोतें और किसान लोग बैलों के पीछे-पीछे आराम से जाएँ। हे वायु और सूर्य देवो! आप दोनों हविष्य से प्रसन्न होकर, पृथ्वी को जल से सींचकर इन ओषधियों को श्रेष्ठ फलों से युक्त करें ॥५॥
४८४. शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम्। शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय॥६॥
कृषक हर्षित होकर खेत को जोते, बैल उन्हें सुख प्रदान करें और हल सुखपूर्वक कृषि कार्य सम्पन्न करें। रस्सियाँ सुखपूर्वक बाँधे। हे शुन: देवता ! आप चाबुक को सुख के लिए ही चलाएँ ॥६॥
४८५. शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम्। यद् दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम्॥७॥
हे वायु और सूर्यदेव ! आप हमारी हवि का सेवन करें। आकाश में निवास करने वाले जल देवता वर्षा के द्वारा इस भूमि को सिंचित करें ॥७॥
४८६. सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव। यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः॥८॥
हे सीते (जुती हुई भूमि)! हम आपको प्रणाम करते हैं। हे ऐश्वर्यशालिनी भूमि ! आप हमारे लिए श्रेष्ठ मन वाली तथा श्रेष्ठ फल प्रदान करने वाली होकर हमारे अनुकूल रहें॥८॥
४८७. घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः।
सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत् पिन्वमाना॥९॥
घृत (जल) और शहद द्वारा भली प्रकार अभिषिचित हे सीते (जुती भूमि) !आप देवगणों तथा मरुतों द्वारा स्वीकृत होकर घृत से सिंचित होकर (घृतयुक्त) पोषक रस (जल- दुग्धादि) के साथ हमारी ओर उन्मुख हो ॥९॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य