अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:18 – वनस्पति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१८- वनस्पति सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – वनस्पति (वाणपर्णी ओषधि)। छन्द – अनुष्टुप्, ४ अनुष्टुप्गर्भाचतुष्पाद् उष्णिक,६ उष्णिकगर्भापथ्यापंक्ति।]
इस सूक्त में प्रत्यक्ष रूप से सपत्नी (सौत) का पराभव करके पति को अपने प्रियपात्र के रूप में स्थापित करने का भाव है। कौशिक सूत्र में ‘बाणापर्णी’ नामक ओषधि का इसके लिए प्रयोग कहा गया है। किसी समय सपत्नी जन्य पारिवारिक विग्रह को दूर करने के लिए इस सूक्त का ऐसा भी प्रयोग किया जाता रहा होगा; किन्तु सूक्त के ऋषि अथर्वा (पुरुष) हैं। पुरुष किसी को ‘मेरी सपत्नी नहीं कह सकता। मंत्र ४ में ‘अहं उत्तरा’ मैं उत्तरा (श्रेष्ठ) हूँ, यह भी स्त्रीवाचक प्रयोग है। ‘अस्तु’ सूक्तार्थ को केवल सपत्नी निवारण तक सीमित नहीं किया जा सकता। आलंकारिक रूप से ‘परमात्मा या जीवात्मा’ को पति तथा सदबुद्धि-दुर्बुद्धि अथवा विद्या एवं अविद्या को पत्नियाँ कहा गया है। सदबुद्धि या विद्या यह कामना करे कि दुर्बुद्धि या अविद्या दूर हटे तथा जीवात्मा का स्नेह मेरे प्रति ही रहे-ऐसा अर्थ करने से इस सूक्त का भाव भी सिद्ध होता है एवं ऋषि तथा वेद की गरिमा का निर्वाह भी होता है-
४८८.इमां खनाम्योषधि वीरुधां बलवत्तमाम्।
यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम्॥१॥
हम इस बलवती ओषधि को खोदकर निकालते हैं। इससे सपत्नी (दुर्बुद्धि) को बाधित किया जाता है और स्वामी की असाधारण प्रीति उपलब्ध की जाती है॥१॥
[वनस्पति(ओषधि) भूमि से खोदकर निकाली जाती है तथा सद्-असद् विवेकयुक्त दिव्य प्रज्ञा को साधना द्वारा अंत:करण की गहराई से प्रकट किया जाता है।]
४८९. उत्तानपर्णे सुभगे देवजूते सहस्वति ।सपत्नीं मे पराणुद पति मे केवलं कृधि॥२॥
हे उत्तानपर्णी (इस नाम की या ऊर्ध्वमुखी पत्तों वाली), हितकारिणी, देवों द्वारा सेवित, बलवती (ओषधे) ! आप मेरी सौत (अविद्या) को दूर करें । मेरे स्वामी को मात्र मेरे लिए प्रीतियक्त करें॥२॥
*[विद्या का पक्ष लेने वाली प्रज्ञा को ऊर्ध्वपर्णी तथा देवों द्वारा सेवित कहना युक्ति संगत है।]*
४९०. नहि ते नाम जग्राह नो अस्मिन् रमसे पतौ। परामेव परावतं सपत्नीं गमयामसि॥३॥
हे सपत्नी, मैं तेरा (सपत्नी- दुर्बुद्धि का) नाम नहीं लेती। तू भी पति (परमेश्वर या जीवात्मा) के साथ सुख अनुभव नहीं करती। मैं अपनी सपत्नी को बहुत दूर भेज देना चाहती हूँ॥३॥
४९१. उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्यः। अधः सपत्नी या ममाधरा साधराभ्यः॥४॥
हे अत्युत्तम ओषधे ! मैं श्रेष्ठ हूँ, श्रेष्ठों में भी अति श्रेष्ठ बनूँ। हमारी सपत्नी (अविद्या) अधम है, वह अधम से अधम गति पाये॥४॥
४९२. अहमस्मि सहमानाथो त्वमसि सासहिः।उभे सहस्वती भूत्वा सपत्नी मे सहावहै॥५॥
हे ओषधे! मैं आपके सहयोग से सपत्नी को पराजित करने वाली हूँ। आप भी इस कार्य में समर्थ हैं। हम दोनों शनि-सम्पन्न बनकर सपत्नी को शक्तिहीन करें॥५॥
४९३. अभि तेऽधां सहमानामुप तेऽधां सहीयसीम्।
मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु॥६॥
(हे पतिदेव!) मैं आपके समीप, आपके चारों ओर इस विजयदायिनी ओषधि को स्थापित करती हूँ। इस ओषधि के प्रभाव से आपका मन हमारी ओर उसी प्रकार आकर्षित हो, जैसे गोएँ बछड़े की ओर दौड़ती हैं तथा जल नीचे की ओर प्रवाहित होता है॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य