अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:20 – रयिसंवर्धन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[२०- रयिसंवर्धन सूक्त]
[ ऋषि – वसिष्ठ। देवता – १-२,५ अग्नि, ३ अर्यमा, भग, बृहस्पति, देवी, ४ सोम, अग्नि, आदित्य, विष्णु, ब्रह्मा, बृहस्पति, ६ इन्द्रवायू.७ अर्यमा, बृहस्पति, इन्द्र, वात, विष्णु, सरस्वती, सविता, वाजी, ८ विश्वाभुवनानि (समस्त भुवन), ९ पञ्च प्रदिश, १० वायु, त्वष्टा। छन्द – अनुष्टुप्, ६ पथ्यापंक्ति, ८ विराट् जगती।]
५०२. अयं ते योनिर्ऋत्वियो यतो जातो अरोचथाः।
तं जानन्नग्न आ रोहाधा नो वर्धया रयिम्॥१॥
हे अग्निदेव! यह अरणि या यज्ञ वेदी आपकी उत्पत्ति का हेतु है, जिसके द्वारा आप प्रकट होकर शोभायमान होते हैं। अपने उस मूल को जानते हुए आप उस पर प्रतिष्ठित हों और हमारे धन-वैभव को बढ़ाएँ॥१॥
५०३. अग्ने अच्छा वदेह नः प्रत्यङ्नः सुमना भव।
प्रणो यच्छ विशां पते धनदा असि नस्त्वम्॥२॥
हे अग्निदेव ! आप हमारे प्रति श्रेष्ठ भावों को रखकर इस यज्ञ में उपस्थित हों तथा हमारे लिए हितकारी उपदेश करें। हे प्रजापालक अग्निदेव ! आप ऐश्वर्य दाता हैं, इसलिए हमें भी धन-धान्य से परिपूर्ण करें॥२॥
५०४. प्रणो यच्छत्वर्यमा प्र भगःप्र बृहस्पतिः।
प्र देवी: प्रोत सूनृता रयिं देवी दधातु मे॥३॥
अर्यमा, भग और बृहस्पतिदेव हमें ऐश्वर्य से परिपूर्ण करें। समस्त देवगण तथा वाणी की अधिष्ठात्री, सत्यप्रिय देवी सरस्वती हमें भरपूर सम्पदाएँ प्रदान करें॥३॥
५०५. सोमं राजानमवसेऽग्नि गीर्भिर्हवामहे।
आदित्यं विष्णुं सूर्य ब्रह्माणं च बृहस्पतिम्॥४॥
हम अपने संरक्षण एवं पालन के लिए राजा सोम, अग्निदेव, आदित्यगण, विष्णुदेव, सूर्यदेव, प्रजापति ब्रह्मा और बृहस्पतिदेव को स्तोत्रों द्वारा आमन्त्रित करते हैं॥४॥
५०६. त्वं नो अग्ने अग्निभिर्ब्रह्म यज्ञं च वर्धय।
त्वं नो देव दातवे रयिं दानाय चोदय॥५॥
हे अग्निदेव ! आप अन्य सभी अग्नियों के साथ पधार कर हमारे स्तोत्रों एवं यज्ञ की अभिवृद्धि करें। आप धन-वैभव प्रदान करने के निमित्त यजमानों एवं दाताओं को भी प्रेरित करें॥५॥
५०७. इन्द्रवायू उभाविह सुहवेह हवामहे।
यथा नः सर्व इज्जनः संगत्यां सुमना असद् दानकामश्च नो भुवत्॥६॥
प्रशंसनीय इन्द्रदेव एवं वायुदेव ! दोनों को हम इस यज्ञीय कर्म में आदरपूर्वक आमंत्रित करते हैं। सभी देवगण हमारे प्रति अनुकूल विचार रखते हुए हर्षित हों। सभी मनुष्य दान की भावना से अभिप्रेरित हों। अत: हम आपका आवाहन करते हैं॥६॥
५०८. अर्यमणं बृहस्पतिमिन्द्रं दानाय चोदय। वातं विष्णुं सरस्वती सवितारं च वाजिनम्॥७॥
हे स्तोताओ ! आप सब अर्यमा, बृहस्पति, इन्द्र, वायु, विष्णु, सरस्वती, अन्न तथा बलप्रदायक सवितादेव का आवाहन करें। सभी देव हमें ऐश्वर्य प्रदान करने के लिए पधारें॥७॥
५०९. वाजस्य नु प्रसवे सं बभूविमेमा च विश्वा भुवनान्यन्तः।
उतादित्सन्तं दापयतु प्रजानन् रयिं च नः सर्ववीरं नि यच्छ॥८॥
अन्न की उत्पत्ति के कारणभूत कर्म को हम शीघ्र ही प्राप्त करें। वृष्टि के द्वारा अन्न पैदा करने वाले ‘वाज प्रसव देवता’ के मध्य में ये समस्त दृश्य-जीव निवास करते हैं। ये कृपण व्यक्ति को दान देने के लिए प्रेरित करें तथा हमें वीर पुत्रों से युक्त महान् ऐश्वर्य प्रदान करें॥८॥
५१०. दुह्रां मे पञ्च प्रदिशो दुह्रामुर्वीर्यथाबलम्।
प्रापेयं सर्वा आकूतीर्मनसा हृदयेन च॥९॥
यह उर्वी (विस्तृत पृथ्वी) तथा पाँचों महा दिशाएँ हमें इच्छित फल प्रदान करें। इनके अनुग्रह से हम अपने मन और अन्त:करण के समस्त संकल्पों को पूर्ण कर सकें॥९॥
५११. गोसनिं वाचमुदेयं वर्चसा माभ्युदिहि।
आ रुन्धां सर्वतो वायुस्त्वष्टा पोषं दधातु मे॥१०॥
गौ आदि समस्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली वाणी को हम उच्चरित करते हैं। हे वाग्देवता ! आप अपने तेज के द्वारा हमें प्रकाशित करें, वायुदेव सभी ओर से आकर हमें आवृत करें तथा त्वष्टा देव हमारे शरीर को पुष्ट करें॥१०॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य