अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:21 – शान्ति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[२१- शान्ति सूक्त]
[ ऋषि – वसिष्ठ। देवता – अग्नि। छन्द – भुरिक त्रिष्टुप, १ पुरोऽनुष्टप, ४ त्रिष्टुप, ५ जगती, ६ उपरिष्टात् विराट् बृहती, ७ विराट् गर्भात्रिष्टुप्, ९ निचृत् अनुष्टुप्, १० अनुष्टुप्।]
५१२. ये अग्नयो अप्स्व१न्तर्ये वृत्रे ये पुरुषे ये अश्मसु।
य आविवेशौषधीयों वनस्पतींस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥१॥
जो अग्नियाँ मेघों, मनुष्यों, मणियों (सूर्यकान्त आदि), ओषधियों, वृक्ष-वनस्पतियों तथा जल में विद्यमान हैं, उन समस्त अग्नियों को यह हवि प्राप्त हो॥१॥
५१३. य: सोमे अन्तयों गोष्वन्तर्य आविष्टो वयःसु यो मृगेषु।
य आविवेश द्विपदो यश्चतुष्पदस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥२॥
जो अग्नियाँ सोमलताओं, गौओं, पक्षियों, हरिणों, दो पैर वाले मनुष्यों तथा चार पैर वाले पशुओं के अन्दर विद्यमान हैं, उन समस्त अग्नियों के लिए यह हवि प्राप्त हो ॥२॥
५१४. य इन्द्रेण सरथं याति देवो वैश्वानर उत विश्वदाव्यः।
यं जोहवीमि पृतनासु सासहिं तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥३॥
जो अग्निदेव इन्द्र के साथ एक रथ पर आरूढ़ होकर गमन करते हैं; जो सबको जलाने वाले दावाग्नि रूप हैं; जो सबके हितकारी हैं तथा युद्ध में विजय प्रदान करने वाले हैं; उन अग्निदेव को ये आहुतियाँ प्राप्त हों॥३॥
५१५. यो देवो विश्वाद् यमु काममाहुर्यं दातारं प्रतिगृह्णन्तमाहुः।
यो धीरः शक्रः परिभूरदाभ्यस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥४॥
जो अग्निदेव समस्त विश्व के भक्षक हैं, जो इच्छित फलदाता के रूप में पुकारे जाते हैं, जिनको देने वाला और ग्रहण करने वाला भी कहा जाता है, जो विवेकवान्, बलवान्, रिपुओं को दबाने वाले और स्वयं किसी से न दबने वाले कहलाते हैं, उन अग्निदेव को यह आहुति प्राप्त हो ॥४॥
५१६. यं त्वा होतारं मनसाभि संविदुस्त्रयोदश भौवनाः पञ्च मानवाः।
वर्चोधसे यशसे सूनृतावते तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥५॥
हे अग्ने ! तेरह भौवन (संवत्सर के १३ माह) और पाँच ऋतुएँ (अथवा भुवन ऋषि के विश्वकर्मा आदि १३ पुत्र और पाँचों वर्णों के मनुष्य) आपको मन से यज्ञ-सम्पादक के रूप में जानते हैं। हे वर्चस्वी, सत्यभाषी तथा कीर्तिवान् ! आपको यह हवि प्राप्त हो ॥५॥
५१७. उक्षान्नाय वशान्नाय सोमपृष्ठाय वेधसे।
वैश्वानरज्येष्ठेभ्यस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥६॥
जो गौओं और बैलों के लिए अन्न प्रदान करते हैं और जो अपने ऊपर सोम आदि ओषधियों को धारण करते हैं, उन विद्वान् तथा समस्त मनुष्यों के लिए कल्याणकारी महान् अग्निदेव के लिए यह हवि प्राप्त हो॥६॥
५१८. दिवं पृथिवीमन्वन्तरिक्षं ये विद्युतमनुसंचरन्ति।
ये दिक्ष्व१न्तर्ये वाते अन्तस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत्॥७॥
जो अग्नियाँ धुलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्षलोक में व्याप्त हैं; जो विद्युत् के रूप में सर्वत्र विचरण करती हैं; जो सभी दिशाओं और वायु के अन्दर प्रविष्ट होकर विचरण करती हैं, उन अग्नियों को यह हवि प्राप्त हो॥७॥
५१९. हिरण्यपाणि सवितारमिन्द्रं बृहस्पतिं वरुणं मित्रमग्निम्।
विश्वान् देवानङ्गिरसो हवामह इमं क्रव्यादं शमयन्त्वग्निम्॥८॥
स्तोताओं के ऊपर अनुदानों की वर्षा करने वाले, (हिरण्यपाणि) स्वर्णिम किरणों वाले, सर्व प्रेरक सवितादेव, इन्द्रदेव, मित्रावरुणदेव, अग्निदेव तथा विश्वेदेवों का हम अंगिरावंशी ऋषि आवाहन करते हैं, वे समस्त देवगण इस ‘क्रव्याद अग्नि’ (मांस भक्षी अग्नि अथवा क्षीण करने वाली दुष्यवृत्ति) को शान्त करें॥८॥
५२०. शान्तो अग्निः क्रव्याच्छान्तः पुरुषरेषणः।
अथो यो विश्वदाव्य१स्तं क्रव्यादमशीशमम्॥९॥
देवताओं की कृपा से मांस का भक्षण करने वाले क्रव्याद अग्निदेव शान्त हो गये हैं। मनुष्यों की हिंसा करने वाले अग्निदेव भी शान्त हों। सबको जलाने वाले, मांस भोजी अग्निदेव को भी हमने शान्त कर दिया है॥९॥
५२१. ये पर्वताः सोमपृष्ठा आप उत्तानशीवरी:।
वातः पर्जन्य आदग्निस्ते क्रव्यादमशीशमन्॥१०॥
जो योग आदि को धारण करने वाले पर्वत हैं, जो ऊपर की ओर गमन करने वाला जल (ऊर्ध्वगामी रस) है; वायु और मेघ हैं, उन सभी ने इन मांस-भक्षक अग्निदेव को शान्त कर दिया है ॥१०॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य