अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:23 – वीरप्रसूति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[२३- वीरप्रसूति सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – चन्द्रमा या योनि। छन्द – अनुष्टुप्, ५ उपरिष्टात् भुरिक् बृहती, ६ स्कन्धोग्रीवी बृहती।]
५२८. येन वेहद् बभूविथ नाशयामसि तत् त्वत्। इदं तदन्यत्र त्वदप दूरे नि दध्मसि॥१॥
हे स्त्री ! जिस पाप या पापजन्य रोग के कारण आप वन्ध्या हुई हैं, उस रोग को हम आपसे दूर करते हैं। यह रोग पुन: उत्पन्न न हो, इसलिए इसको हम आपसे दूर फेंकते हैं॥१॥
५२९. आ ते योनि गर्भ एतु पुमान् बाण इवेषुधिम्।
आ वीरोऽत्र जायतां पुत्रस्ते दशमास्यः॥२॥
हे स्त्री ! जिस प्रकार बाण तूणीर में सहज ही प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार पुसत्वसे युक्त गर्भ आपके गर्भाशय में स्थापित करते हैं। आपका वह गर्भ दस महीने तक गर्भाशय में रहकर वीर पुत्र के रूप में उत्पन्न हो॥२॥
५३०. पुमांसं पुत्रं जनय तं पुमाननु जायताम्।
भवासि पत्राणां माता जातानां जनयाश्च यान्॥३॥
हे स्त्री ! आप पुरुष लक्षणों से युक्त पुत्र पैदा करें और उसके पीछे भी पुत्र ही पैदा हो। जिन पुत्रों को आपने उत्पन्न किया है तथा जिनको इसके बाद उत्पन्न करेंगी, उन सभी पुत्रों की आप माता हों॥३॥
५३१. यानि भद्राणि बीजान्वृषभा जनयन्ति च।तैस्त्वं पुत्रं विन्दस्व सा प्रसूर्धेनुका भव॥४॥
हे स्त्री!जिन अमोघ वीर्यों के द्वारा वृषभ गौओं में गर्भ की स्थापना कर बछड़े उत्पन्न करते हैं, वैसे ही अमोघ वीर्यों के द्वारा आप पुत्र प्राप्त करें। इस प्रकार आप गौ के सदृश पुत्रों को उत्पन्न करती हुई, अभिवृद्धि को प्राप्त हों॥४॥
५३२. कृणोमि ते प्राजापत्यमा योनिं गर्भ एतु ते।
विन्दस्व त्वं पुत्रं नारि यस्तुभ्यं शमसच्छमु तस्मै त्वं भव॥५॥
हे स्त्री ! हम आपके निमित्त प्रजापति द्वारा निर्धारित संस्कार करते हैं। इसके द्वारा आपके गर्भाशय में गर्भ की स्थापना हो। आप ऐसा पुत्र प्राप्त करें, जो आपको सुख प्रदान करे तथा जिसको आप सुख प्रदान करें॥५॥
५३३. यासां द्यौष्पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव।
तास्त्वा पुत्रविद्याय दैवीः प्रावन्त्वोषधयः॥६॥
जिन ओषधियों के पिता द्युलोक हैं और माता पृथ्वी है तथा जिनकी वृद्धि का मूल कारण समुद्र (जल) है, वे दिव्य ओषधियाँ पुत्र लाभ के लिए आपकी विशेष रूप से रक्षा करें॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य