अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:25 – कामबाण सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[२५- कामबाण सूक्त]
[ ऋषि – भृगु। देवता – मित्रावरुण, काम-बाण। छन्द – अनुष्टुप्।]
इस मंत्र में कामबाण का उल्लेख है। इस सूक्त में कामबाण के जो भीषण दुष्प्रभाव प्रकट किये गये हैं, उन्हें समझकर उससे बचने का भाव सहज ही उत्पन्न होता है। पति-पत्नी के बीच कर्तव्य भावना प्रधान सम्बन्ध होने चाहिए। काम प्रवृत्ति भी सहज उभरती है, उसे एक सीमा तक ही छूट दी जा सकती है। इसीलिए यहाँ विरोधाभास अलंकार का प्रयोग करते हुए कामबाण के प्रयोग की बात करते हुए उसके भीषण प्राण लेवा स्वरूप को उभारा गया है। अगर कहीं धूम्रपान द्वारा अतिथि सत्कार का आग्रह किया जाय, तो समझदार व्यक्ति यह कह सकता है कि “खासी,दमा तथा कैसर उत्पन्न करने वाले धूम्रपान के लिए आपका स्वागत है।” इस कथन से धूम्रपान करने वाले के मन में उसके प्रति विरक्ति का भाव ही बढ़ेगा। ऐसा ही मनोवैज्ञानिक प्रयोग इस सूक्त में कामबाण को लेकर किया गया प्रतीत होता है-
५४१. उत्तुदस्त्वोत् तुदतु मा घृथाः शयने स्वे।
इषुः कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा हृदि॥१॥
हे स्त्री! उत्कृष्ट होकर भी पीड़ा पहुँचाने वाले ‘उत्तुद’ (इस नाम वाले अथवा विचलित करने वाले) देव आपको व्यथित करें। तीक्ष्ण कामबाण से हम आपका हृदय बीधते हैं, उससे व्यथित होकर आप अपनी शय्या पर सुख की नींद न प्राप्त कर सकें॥१॥
५४२. आधीपर्णा कामशल्यामिषु सङ्कल्पकुल्मलाम्।
तां सुसन्नतां कृत्वा कामो विध्यतु त्वा हृदि॥२॥
जिस बाण में मानसिक पीड़ारूपी पंख लगे हैं, रमण करने की इच्छा ही जिसका अगला भाग (शल्य) है तथा जिसमें भोग-विषयक संकल्प रूपी दण्ड लगे हैं, उसको धनुष पर चढ़ाकर, कामदेव आपके हृदय का वेधन करें ॥२॥
५४३. या प्लीहानं शोषयति कामस्येषुः सुसन्नता।
प्राचीनपक्षा व्योषा तया विध्यामि त्वा हदि ॥३॥
हे स्त्री ! कामदेव द्वारा भली प्रकार संधान किया हुआ बाण सरलगामी है। अत्यधिक दाहक, हृदय में प्रवेश करके तिल्ली (प्लीहा) को सुखा देने वाले, उस बाण के द्वारा हम आपके हृदय को विदीर्ण करते हैं॥३॥
५४४.शुचा विद्धा व्योषया शुष्कास्याभि सर्प मा।
मृदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्यनुव्रता॥४॥
हे स्त्री ! इस दाहक, शोकवर्धक बाण के प्रभाव से म्लान मुख होकर हमारे समीप आएँ। काम जन्य क्रोध को छोड़कर आप मृदु बोलने वाली होकर हमारे अनुकूल कर्म करती हुई हमें प्राप्त हो॥४॥
५४५. आजामि त्वाजन्या परि मातुरथो पितुः।
यथा मम क्रतावसो मम चित्तमुपायसि॥५॥
हे स्त्री ! काम से प्रताड़ित आपको, हम आपके माता-पिता के समीप से लाते हैं, जिससे आप कर्मों और विचारों से हमारे अनुकूल होकर हमें प्राप्त हो॥५॥
५४६. व्यस्यै मित्रावरुणौ हृदश्चित्तान्यस्यतम्।अथैनामक्रतुं कृत्वा ममैव कृणुतं वशे॥६॥
हे मित्र और वरुण देव! आप इस स्त्री के हृदय और चित्त को विशेष रूप से प्रभावित करें और (पूर्व अभ्यास वाले) कर्मों को भुलाकर इसे मेरे अनुकूल आचरण वाली बनाएँ ॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य