अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:28 – पशुपोषण सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[२८- पशुपोषण सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – यमिनी। छन्द – अनुष्टुप्, १ अतिशक्वरीगर्भा चतुष्पदा अतिजगती, ४ यवमध्या विराट् ककुप, ५ त्रिष्टुप् ६ विराट् गर्भा प्रस्तारपंक्ति।]
इस सूक्त के ऋषि ‘ब्रह्मा’ तथा देवता ‘यमिनी’ है। कौशिक सूत्र में इस सूक्त से युगल-जुड़वाँ सन्तानों के दोष निवारण का विधान दिया है इसी आधार पर परम्परागत भाष्यकारों ने इस सूक्त को जुड़वाँ बच्चे देने वाली गाय पर घटित करके अर्थ किये हैं; किन्तु वे अर्थ मूल सूक्त के व्यापक संदर्भों के साथ युक्तिसंगति नहीं प्रतीत होते । जैसे मंत्र क्र.२ में उसे मांसभक्षी होकर पशुओं को क्षीण करने वाली कहा है। जुड़वाँ बच्चे देने से गाय मांस भक्षी नहीं हो जाती। फिर मंत्र के. ३ में उसे पुरुषों, गौओं एवं अश्वों तथा सभी क्षेत्रों के लिए कल्याण प्रदायिनी होने को कहा गया है। मंत्र क्र. ४-५ में उस ‘यमिनी’ से प्रार्थना की गयी है कि उत्तम भाव विचार और कर्म वाले व्यक्तियों के बीच पुरुषों एवं पशुओं के लिए हिंसक न हो। यमिनी का अर्थ जुड़वाँ बच्चे पैदा करने वाली गाय करने से यह सब भाव सिद्ध नहीं होते। यमिनी नियामक शक्ति, अंतः बाह्य की प्रकृति करना अधिक युक्ति संगत है,। वह द्वंद्वात्मक होने से यमिनी कही जा सकती है। यह प्रकृति जब ‘अप-ऋतु’ (ऋतु चक्र या सहज प्रवाह के विपरीत) हो जाती है, तब वह मनुष्यों-पशुओं के लिए विनाशक हो जाती है। इस यमिनी प्रकृति से सबके लिए कल्याणकारी होने की प्रार्थना की जानी उचित है। ‘अस्तु’ इसी संदर्भ में मंत्रार्थ किये गये हैं-
५५९. एकैकयैषा सृष्ट्या सं बभूव यत्र गा असृजन्त भूतकृतो विश्वरूपाः।
यत्र विजायते यमिन्यपर्तुः सा पशून् क्षिणाति रिफती रुशती॥१॥
जहाँ एक-एक करके सृष्टि बनी,(वहाँ) पदार्थों के सृजेता ने विश्वरूपा (विविध रूपों वाली अथवा विश्वरूपिणी) गौ (पृथ्वी) का सृजन किया । (इस भूतल पर) जहाँ यमिनी (नियामक प्रकृति) ऋतुकाल से भिन्न परिणाम उत्पन्न करने लगती है, तो वह पीड़ा उत्पन्न करती, कष्ट देती तथा पशुओं को नष्ट करती है॥१॥
५६०. एषा पशून्त्सं क्षिणाति क्रव्याद् भूत्वा व्यद्वरी।
उतैनां ब्रह्मणे दद्यात् तथा स्योना शिवा स्यात्॥२॥
ऐसी (यमिनी) मांस भक्षी (क्रूर) होकर पशुओं (प्राणियो) को नष्ट करने लगती है। उसे ब्रह्म या ब्राह्मण को सौंप देना चाहिए, ताकि वह सुख तथा कल्याण देने वाली हो जाए॥२॥
*[क्रूर कर्मियों के संसर्ग से मनुष्यों की आन्तरिक या विश्वगत प्रकृति विनाशक हो जाती है। उसे ब्राह्मी अनुशासन में स्थापित करने से वह कल्याणकारी हो जाती है।]**
५६१. शिवा भव पुरुषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्यः शिवा।
शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा न इहैधि॥३॥
हे यमिनि ! आप मनुष्यों के लिए सुखदायी हों तथा गौओं और अश्वों के लिए कल्याणकारिणी हों। आप समस्त भूमि के लिए कल्याणकारिणी होकर हमारे लिए भी सुखदायी हों॥३॥
५६२. इह पुष्टिरिह रस इह सहस्रसातमा भव।
पशून् यमिनि पोषय॥४॥
यहाँ (इस क्षेत्र में) पुष्टि और रसों की वृद्धि हो। हे यमिनि ! आप इस क्षेत्र के पशुओं का पोषण करें तथा इसे हजारों प्रकार का धन प्रदान करें॥४॥
५६३. यत्रा सहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्व१: स्वायाः।
तं लोकं यमिन्यभिसंबभूव सा नो मा हिंसीत् पुरुषान् पशूंश्च॥५॥
जिस देश में श्रेष्ठ हृदयवाले तथा श्रेष्ठ कर्म वाले मनुष्य अपने शरीर के रोगों का परित्याग करके आनन्दित होते हैं, उस देश में यमिनी पुरुषों और पशुओं की हिंसा न करे॥५॥
५६४. यत्रा सुहार्दा सुकृतामग्निहोत्रहुतां यत्र लोकः।
तं लोकं यमिन्यभिसंबभूव सा नो मा हिंसीत् पुरुषान् पशूंश्च॥६॥
जिस देश में श्रेष्ठ हृदय वाले तथा श्रेष्ठ कर्म वाले मनुष्य अग्निहोत्र, हवन आदि में हवि प्रदान करने के लिए निरत रहते हैं। उस देश में यमिनी मनुष्यों और पशुओं की हिंसा न करें ॥६॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य