अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:29 – अवि सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[२९ – अवि सूक्त]
[ ऋषि – उद्दालक। देवता – शितिपात् अवि, ७ काम, ८ भूमि। छन्द – अनुष्टुप्, १,३ पथ्यापंक्ति, ७ त्र्यवसाना षट्पदा उपरिष्टात् दैवी बृहती ककुम्मतीगर्भा विराट् जगती, ८ उपरिष्टात् बृहती।]
इस सूक्त के १ से ६ तक मंत्रों के देवता ‘शितिपाद् अवि’ हैं । ‘शिति’ का अर्थ अँधेरा-उजाला (काला-सफेद) होता है। ‘शितिपाद् अवि’ का अर्थ सफेद या काले पैर वाली भेड़ करने से मंत्रों के दिव्य भावों की सिद्धि नहीं होती। प्रथम मंत्र में ‘इष्टापूर्त्तस्य षोडश’ वाक्य से शितिपाद् अवि का भाव खुलता है। मनुष्य जीवन में विविध कर्म करता रहता है। उससे जाने-अनजाने पापादि कर्म भी हो जाते हैं। वे पाप कर्म मनुष्य के लिए अनिष्टकारक होते हैं। उनसे बचने के लिए ऋषियों ने ‘इष्टापूर्त्त यज्ञ’ का विधान बनाया है। उसके अन्तर्गत अर्जित साधनों का सोलहवाँ भाग इष्टापूर्त्त के रूप में जनहितार्थ-यज्ञार्थ लगा देना चाहिए। अनजाने में हुए पापों की विनाशक प्रतिक्रिया से बचाने वाले इस ‘दान’ को ‘अवि’ (रक्षक) कहना उचित है। यह पाप-पुण्य के बीच चलने वाला क्रम है, इसलिए इसे ‘शितिपाद् ‘कहना युक्ति संगत है । ‘शितिपाद्’ का एक अर्थ अनिष्ट करने वाले का पतन करने वाला भी होता है। इस भाव से भी इष्टापूर्त्त को शितिपाद् कह सकते हैं। वेद मंत्रों ने शितिपाद् अवि के दान का बहुत महत्व कहा है, उसकी गरिमा का निर्वाह शितिपाद को इष्टापूर्ति यज्ञ मानने से हो जाता है-
५६५. यद् राजानो विभजन्त इष्टापूर्तस्य षोडशं यमस्यामी सभासदः।
अविस्तस्मात् प्रमुञ्चति दत्त: शितिपात् स्वधा॥१॥
जब राजा यम के नियम पालक सभासद (मनुष्यकृत पाप-पुण्यों का) विभाजन करते हैं, तब (अर्जन के) सोलहवें अंश के रूप में दिया गया इष्टापूर्त्त रूप शितिपाद् अवि (काले-उजले चरणों वाला रक्षक) भय से मुत्तः करता है तथा तुष्टि प्रदान करता है॥१॥
५६६. सर्वान् कामान् पूरयत्याभवन् प्रभवन् भवन्।
आकूतिप्रोऽविर्दत्तः शितिपान्नोप दस्यति॥२॥
(इष्टापूर्त्त का यह) दिया हुआ ‘शितिपाद् अवि’ (अनिष्ट करने वाली शक्तियों का पतन करने वाला रक्षक) संकल्पों की पूर्ति करने वाला, सत्कर्मों को प्रभावशाली बनाने वाला, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा नष्ट न होने वाला होता है॥२॥
५६७. यो ददाति शितिपादमविं लोकेन संमितम्।
स नाकमभ्यारोहति यत्र शुल्को न क्रियते अबलेन बलीयसे॥३॥
जो (व्यक्ति) इस लोक-सम्मत शितिपाद् अवि (इष्टापूर्त्त भाग) का दान करता है। वह स्वर्ग को प्राप्त करता है। जहाँ निर्बल से बलपूर्वक शुल्क वसूल नहीं किया जाता॥३॥
[श्रेष्ठ समाज में बल-सम्पन्नों द्वारा निर्बल व्यक्तियों का शोषण नहीं किया जाता, उनके रक्षण एवं पोषण की व्यवस्था की जाती है]
५६८. पञ्चापूपं शितिपादमवि लोकेन संमितम्।
प्रदातोप जीवति पितॄणां लोकेऽक्षितम्॥४॥
पाँच (तत्त्वों या प्राणों) को सड़न (विकृतियों) से बचाने वाले लोक-सम्मत इस शितिपाद् अवि(इष्टापूर्त्त भाग) का दान करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ पितृलोकों में अक्षय जीवन प्राप्त करता है॥४॥
५६९. पञ्चापूपं शितिपादमवि लोकेन संमितम्।
प्रदातोप जीवति सूर्यामासयोरक्षितम्॥५॥
पाँचों (तत्त्वों या प्राणों) को सड़न (विकृतियों) से बचाने वाले लोक-सम्मत इस शितिपाद् अवि का दान करने वाला (साधक) सूर्य और चन्द्र के समान अक्षय जीवन प्राप्त करता है॥५॥
५७०. इरेव नोप दस्यति समुद्र इव पयो महत्।
देवौ सवासिनाविव शितिपान्नोप दस्यति॥६॥
यह शितिपाद् अवि (अनिष्ट-निवारक,संरक्षक-दान) महान् पृथ्वी और समुद्र के जल के समान तथा साथ रहने वाले देवों (अश्विनीकुमारों) की भाँति कभी क्षीण नहीं होता॥६॥
५७१. क इदं कस्मा अदात् कामः कामायादात्।
कामो दाता कामः प्रतिग्रहीता कामः समुद्रमा विवेश।
कामेन त्वा प्रति गृह्णामि कामैतत् ते॥७॥
यह (दान) किसने दिया? किसको दिया? (उत्तर है) कामनाओं ने कामनाओं को दिया। मनोरथ ही दाता है तथा मनोरथ ही प्राप्त करने वाला है। कामनाओं से ही तुम्हें (दान को) स्वीकार करता हूँ। हे कामनाओ ! यह सब तुम्हारा है॥७॥
५७२. भूमिष्ट्वा प्रति गृह्णात्वन्तरिक्षमिदं महत्।
माहं प्राणेन मात्मना मा प्रजया प्रतिगृह्य वि राधिषि॥८॥
(हे श्रेष्ठदान!) यह भूमि और महान् अन्तरिक्ष तुम्हें प्राप्त करें। मैं इसे प्राप्त करके (प्राप्ति के मद से) प्राणों (प्राणशक्ति), आत्मा (आत्मबल) तथा समाज से दूर न हो जाऊँ ॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य