अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:30 – सांमनस्य सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[३०- सांमनस्य सूक्त]
[ ऋषि -अथर्वा। देवता – चन्द्रमा, सामनस्य। छन्द -अनुष्टुप्, ५ विराट् जगती, ६ प्रस्तारपंक्ति, ७ त्रिष्टुप्।]
५७३. सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥१॥
हे मनुष्यो ! हम आपके लिए हृदय को प्रेमपूर्ण बनाने वाले तथा सौमनस्य बढ़ाने वाले कर्म करते हैं। आप लोग परस्पर उसी प्रकार व्यवहार करें, जिस प्रकार उत्पन्न हुए बछड़े से गाय स्नेह करती है॥१॥
५७४. अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥२॥
पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और अपनी माता के साथ समान विचार से रहने वाला हो। पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुख से युक्त वाणी बोले॥२॥
५७५. मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥३॥
भाई अपने भाई से विद्वेष न करे और बहिन अपनी बहिन से विद्वेष न करे। वे सब एक विचार तथा एक कर्म वाले होकर परस्पर कल्याणकारी वार्तालाप करें॥३॥
५७६. येन देवा न वियन्ति नो च विद्विषते मिथः।
तत् कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः॥४॥
जिसकी शक्ति से देवगण विपरीत विचार वाले नहीं होते हैं और परस्पर विद्वेष भी नहीं करते हैं, उस समान विचार को सम्पादित करने वाले ज्ञान को हम आपके घर के मनुष्यों के लिए (जाग्रत् या प्रयुक्त) करते हैं॥४॥
५७७. ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान् वः संमनसस्कृणोमि॥५॥
आप छोटों-बड़ों का ध्यान रखकर व्यवहार करते हुए समान विचार रखते हुए तथा समान कार्य करते हुए पृथक् न हों। आप एक दूसरे से प्रेमपूर्वक वार्तालाप करते हुए पधारें। हे मनुष्यो ! हम भी आपके समान कार्यों में प्रवृत्त होते हैं॥५॥
५७८. समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि।
सम्यञ्चोऽग्नि सपर्यतारा नाभिमिवाभितः॥६॥
हे समानता की कामना करने वाले मनुष्यो ! आपके जल पीने के स्थान एक हों तथा अन्न का भाग साथ-साथ हो। हम आपको एक ही प्रेमपाश में साथ-साथ बाँधते हैं। जिस प्रकार पहियों के अरे नाभि के आश्रित होकर रहते हैं, उसी प्रकार आप सब भी एक ही फल की कामना करते हुए अग्निदेव की उपासना करें॥६॥
५७९. सध्रीचीनान् वः संमनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्संवननेन सर्वान्।
देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायंप्रातः सौमनसो वो अस्तु॥७॥
हम आपके मन को समान बनाकर एक जैसे कार्य में प्रवृत्त करते हैं और आपको एक जैसा अन्न ग्रहण करने वाला बनाते हैं। इसी कर्म के द्वारा हम आपको वशीभूत करते हैं। अमृत की सुरक्षा करने वाले देवताओं के समान आपके मन प्रात: और सायं हर्षित रहें ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य