अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:31 – यक्ष्मनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[३१- यक्ष्मनाशन सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – पाप्महा, १ अग्नि, २ शक्र, ३ पशु समूह, ४ द्यावापृथिवी, ५ त्वष्टा, ६ अग्नि, इन्द्र,७ देवगण, सूर्य, ८-१० आयु, ११ पर्जन्य। छन्द – अनुष्टुप, ४ भुरिक अनुष्टुप्, ५ विराट् प्रस्तारपंक्ति।]
५८०. वि देवा जरसावृतन् वि त्वमग्ने अरात्या।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥१॥
देवगण वृद्धावस्था से अप्रभावित रहते हैं। हे अग्निदेव! आप इसे कृपणता तथा शत्रुता से दूर रखें । हम कष्टदायक पाप से और यक्ष्मा (रोगों) से विमुक्त रहें और दीर्घायुष्य प्राप्त करें॥१॥
५८१. व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पापकृत्यया।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥२॥
पवमान (पवित्र बने रहने वाले) वायुदेव इसे पीड़ा से मुक्त रखें। समर्थ इन्द्रदेव इसे पापकर्म से पृथक रखें। हम कष्टदायक पाप से और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त रहें और दीर्घायुष्य प्राप्त करें॥२॥
५८२. वि ग्राम्याः पशव आरण्यैर्व्यापस्तृष्णयासरन्।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥३॥
ग्रामीण पशु जंगली पशुओं से अलग रहते हैं और प्यासे मनुष्य से जल अलग रहता है, उसी प्रकार हम समस्त पापों से तथा यक्ष्मादि (रोगों) से मुक्त रहें और दीर्घायु पाएँ॥३॥
५८३. वी३मे द्यावापृथिवी इतो वि पन्थानो दिशंदिशम्।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥४॥
जिस प्रकार द्यावा-पृथिवी पृथक्-पृथक् रहते हैं और प्रत्येक दिशा में जाने वाले मार्ग पृथक्-पृथक् होते हैं। हम भी समस्त पापों से तथा यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त रहें तथा दीर्घजीवन पाएँ॥४॥
५८४. त्वष्टा दुहित्रे वहतुं युनक्तीतीदं विश्वं भुवनं वि याति।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥५॥
जिस प्रकार त्वष्टा (देवता या पिता) पुत्री को (विवाह के समय) पर्याप्त द्रव्य देकर विदा करते हैं और सारे लोक अलग-अलग हैं, उसी प्रकार हम पापों और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त रहें-दीर्घायु प्राप्त करें॥५॥
५८५. अग्निः प्राणान्त्सं दधाति चन्द्रः प्राणेन संहितः।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥६॥
अग्निदेव प्राणों को जाग्रत करते हैं, चन्द्रदेव भी प्राणों के साथ सम्बद्ध हैं। हम पापों से और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त रहकर दीर्घायुष्य प्राप्त करें ॥६॥
५८६. प्राणेन विश्वतोवीर्यं देवाः सूर्यं समैरयन्।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥७॥
देवताओं ने समस्त सामर्थ्य से युक्त सूर्यदेव को जगत् के प्राणरूप से सम्बन्धित किया। हम समस्त पापों और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त रहकर दीर्घजीवन पाएँ॥७॥
५८७. आयुष्मतामायुष्कृतां प्राणेन जीव मा मृथाः।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥८॥
(हे बालक !) आयुष्यवानों की दीर्घायु के साथ प्राणवान् होकर जियो, मरो मत। हम तुम्हें समस्त पापों और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त करके दीर्घायु से संयुक्त करते हैं॥८॥
५८८. प्राणेन प्राणतां प्राणेहैव भव मा मृथाः।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥९॥
श्वास लेने वाले समस्त जीवधारियों के प्राणों के साथ जीवित रहो और अपने प्राणों को मत त्यागो। हम तुम्हें समस्त पापों और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त करके, दीर्घ आयु से सम्पन्न करते हैं॥९॥
५८९. उदायुषा समायुषोदोषधीनां रसेन।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥१०॥
आयुष्य से युक्त बनो, आयुष्य से उन्नत बनो, ओषधि रसों से उत्कर्ष पाओ। हम तुम्हें समस्त पापों और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त करके दीर्घ आयु से संयुक्त करते हैं ॥१०॥
५९०. आ पर्जन्यस्य वृष्टयोदस्थामामृता वयम्।
व्य१हं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा॥११॥
हम पर्जन्यदेव के पर्जन्यवर्षण से अमरत्व और उन्नति प्राप्त करते हैं। हम समस्त पापों और यक्ष्मा (रोगों) से मुक्त होकर दीर्घायुष्य प्राप्त करें ॥११॥
॥ इति तृतीयं काण्डं समाप्तम् ॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य