अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:01 – ब्रह्मविद्या सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[१- ब्रह्मविद्या सूक्त]
[ ऋषि – वेन। देवता – बृहस्पति अथवा आदित्य। छन्द – त्रिष्टुप्, २, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्।]
५९१. ब्रह्म जज्ञानं प्रथम पुरस्ताद् वि सीमतः सुरुचो वेन आवः।
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः॥१॥
ब्रह्म की उत्पत्ति पूर्वकाल में सर्वप्रथम हुई। वेन(उस तेजस्वी ब्रह्म या सूर्य) ने बीच में स्थित होकर सुप्रकाशित (विभिन्न पिण्डों) को फैलाया। उसने आकाश में वर्तमान विशिष्ट स्थानों पर स्थित पदार्थों तथा सत् एवं असत् की उत्पत्ति के स्रोत को खोला॥१॥
५९२. इयं पित्र्या राष्ट्रयेत्वग्रे प्रथमाय जनुषे भुवनेष्ठाः।
तस्मा एतं सुरुचं ह्वारमह्यं धर्म श्रीणन्तु प्रथमाय धास्यवे॥२॥
पिता (परमपिता परमात्मा) से प्राप्त, विश्व में स्थित राष्ट्री (प्रकाशमान नियामक शक्ति) सर्वप्रथम उत्पत्तिसृजन के लिए आगे आए। उस सर्वप्रथम (सर्वोच्च सत्ता) को अर्पित करने के लिए इस सुप्रकाशित, अनिष्टनिवारक तथा प्राप्त करने योग्य यज्ञ को परिपक्व करे॥२॥
५९३. प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति।
ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यानीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ॥३॥
जो ज्ञानी इस (दिव्य सत्ता) का बन्धु (सम्बन्धी) होता है, वह समस्त देवशक्तियों के जन्म का रहस्य कहता है। ब्रह्म से ब्रह्म (वेदज्ञान अथवा यज्ञ) की उत्पत्ति हुई है। उसके नीचे वाले, मध्यवर्ती तथा उच्चभाग से (प्राणियों को) तृप्त करने वाली शक्तियों का विस्तार हुआ॥३॥
५९४. स हि दिवः स पृथिव्या ऋतस्था मही क्षेमं रोदसी अस्कभायत्।
महान् मही अस्कभायद् वि जातो द्यां सद्म पार्थिवं च रजः॥४॥
वे (परमात्मा) ही धुलोक और पृथ्वीलोक को संव्याप्त करके शाश्वत सत्य नियमों के द्वारा उन बृहद् द्यावा-पृथिवी को अपने अन्दर स्थापित करते हैं। वे उनके बीच में सूर्यरूप से उत्पन्न होकर द्यावा-पृथिवी रूपी घर को अपने तेज से संव्याप्त करते हैं ॥४॥
५९५. स बुध्न्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट्।
अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ धुमन्तो वि वसन्तु विप्राः॥५॥
बृहस्पतिदेव इस लोक के अधिपति हैं। जब आलोकवान सूर्य से दिन प्रकट हो, तब उससे प्रकाशित होने वाले ज्ञानी ऋत्विक् अपने-अपने कार्य में संलग्न हों और आहुतियों के द्वारा देवताओं की सेवा करें॥५॥
५९६. नूनं तदस्य काव्यो हिनोति महो देवस्य पूर्व्यस्य धाम।
एष जज्ञे बहुभिः साकमित्था पूर्वे अर्धे विषिते ससन् नु॥६॥
ऋत्विज् सम्बन्धी यज्ञ देवताओं में सर्वप्रथम उत्पन्न सूर्यदेव के महान् धाम को उदयाचल पर भेजता है। वे सूर्यदेव पूर्व दिशा सम्बन्धी प्रदेश में हविरन को लक्ष्य करके शीघ्र ही उदित होते हैं॥६॥
५९७. योऽथर्वाणं पितरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्।
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्॥७॥
देवों के भ्राता बृहस्पतिदेव और प्रजापति अथर्वा के प्रति नमन है। जिस प्रकार आप समस्त जीवों को उत्पन्न करने वाले हैं, उसी प्रकार आप अन्न से सम्पन्न हों। वे क्रांतदर्शी बृहस्पतिदेव हविरन्न से युक्त होकर हिंसा न करते हुए सभी पर कृपा ही करते हैं ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य