अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:03 – शत्रुनाशन सूक्त
अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[३- शत्रुनाशन सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता– रुद्र, व्याघ्र। छन्द – अनुष्टुप्, १ पथ्यापङ्क्ति, ३ गायत्री,७ ककुम्मती गर्भा उपरिष्टात् बृहती।]
इस सूक्त में व्याघ्र, भेड़िया सर्प आदि घातक प्राणियों तथा चोर-लुटेरों आदि दुष्ट पुरुषों से बचाव का उल्लेख है। प्रकारान्तर से यह उक्त पशुओं एवं दुष्ट पुरुषों के स्वभाव वाली हीन प्रकृतियों पर भी घटित होता है-
६०६. उदितस्त्रयो अक्रमन् व्याघ्रः पुरुषो वृकः।
हिरुग्घि यन्ति सिन्धवो हिरुग् देवो वनस्पतिर्हिरुङ् नमन्तु शत्रवः॥१॥
जैसे अन्तर्हित होकर नदियाँ प्रवाहित होती है और अन्तर्हित होकर वनौषधियाँ रोगों को भगा देती हैं, वैसे व्याघ्र आदि भी अन्तर्हित होकर भाग जाएँ। व्याघ्र, चोर और भेड़िया भी अपने स्थान से भागकर चले जाएँ॥१॥
६०७. परेणैतु पथा वृकः परमेणोत तस्करः। परेण दत्वती रज्जुः परेणाघायुरर्षतु॥२॥
भेड़िये दूर के मार्ग से गमन करें और चोर उससे भी दूर के मार्ग से चले जाएँ। दाँतों वाली रस्सी (साँपिन) अन्य मार्ग से गमन करे और पापी शत्रु दूर से भाग जाएँ॥२॥
[दाँत वाली रस्सी कष्टकारी बन्धन की प्रतीक है। सामान्य रस्सी के बन्धन को शक्ति प्रयोग से तोड़ा जा सकता है; किन्तु दाँत वाली-काँटों वाली रस्सी के बन्धन तोड़ने के लिए तो ताकत भी नहीं लगायी जा सकती। मंत्र में ऐसे दुष्ट बन्धन से बचने का भाव भी है।]
६०८. अक्ष्यौ च ते मुखं च ते व्याघ्र जम्भयामसि। आत् सर्वान् विंशतिं नखान्॥३॥
हे व्याघ्र !हम आपके आँख और मुख को विनष्ट करके (पैरों के) बीसों नाखूनों को भी विनष्ट करते हैं॥३॥
६०९. व्याघ्र दत्वतां वयं प्रथमं जम्भयामसि।
आदुष्टेनमथो अहिं यातुधानमथो वृकम्॥४॥
दन्त वाले हिंसक प्राणियों में से हम सबसे पहले व्याघ्र को विनष्ट करते हैं। उसके बाद चोर को, फिर लुटेरे को, फिर सर्प और भेड़िये को विनष्ट करते हैं ॥४॥
६१०. यो अद्य स्तेन आयति स संपिष्टो अपायति।
पथामपध्वंसेनैत्विन्द्रो वज्रेण हन्तु तम्॥५॥
आज जो चोर आ रहे हैं, वे हमसे पिटकर चूर-चूर होते हुए भाग जाएँ। वे कष्टदायी मार्ग से भागे और इन्द्रदेव उन्हें अपने वज्र से मार डालें॥५॥
६११. मूर्णा मृगस्य दन्ता अपिशीर्णा उपृष्टयः।
निमुक् ते गोधा भवतु नीचायच्छशयुर्मुगः॥६॥
हिंसक पशुओं के दाँत कमजोर हो जाएँ,सिर के सींग और पसलियों की हड्डियाँ क्षीण हो जाएँ। हे यात्रिन्! गोह नामक जीव आपकी दृष्टि में न पड़े और लेटने के स्वभाव वाले दुष्ट मृग भी निचले मार्ग से चले जाएँ॥६॥
६१२. यत् संयमो न वि यमो वि यमो यन्न संयमः।
इन्द्रजा: सोमजा आथर्वणमसि व्याघ्रजम्भनम्॥७॥
व्याघ्रादि (हिंसक प्राणियों अथवा प्रवृत्तियों) को काबू करने के लिए अथर्वा द्वारा प्रयुक्त इन्द्र और सोम से प्रकट (सूत्र) नियम यह है कि जहाँ संयम सफल न हो, वहाँ वि-यम (दमन प्रक्रिया) का प्रयोग किया जाए तथा जहाँ वि-यम उपयुक्त न हो, वहाँ संयम का प्रयोग किया जाए ॥७॥
[यह बहुत महत्त्वपूर्ण एवं व्यावहारिक सूत्र है। संयम (सम्यक् विधि से नियम में लाना) यह सोमज (सोम से उत्पन्न) सूत्र है। पालतू पशुओं तथा उपयोगी, किन्तु बहकने वाली मनोवृत्तियों पर यह ढंग लागू किया जाता है। वि-यम(विशेष दबाव) द्वारा वश में करने या उससे मुक्ति पाने का ढंग इन्द्रज (इन्द्र से उत्पन्न) है। घातक पशुओं तथा क्रूर प्रवृत्तियों पर इसी का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है।]
– भाष्यकार।वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य