अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:05 – स्वापन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[५- स्वापन सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – वृषभ, स्वापन। छन्द– अनुष्टुप्, २ भुरिक अनुष्टुप् ७ पुरस्तात् ज्योति त्रिष्टुप्।]
६२१. सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत्।
तेना सहस्येना वयं नि जनान्स्वापयामसि॥१॥
सहस्र श्रृंगों (रश्मियो) वाला वृषभ (वर्षा करने वाला सूर्य) समुद्र से ऊपर आ गया है। शत्रु का पराभव करने वाले उन (सूर्य) के बल से हम (स्तोतागण) सबको सुख से शयन करा देते हैं॥१॥
६२२. न भूमि वातो अति वाति नाति पश्यति कश्चन।
स्त्रियश्च सर्वाः स्वापय शुनश्चन्द्रसखा चरन्॥२॥
इस समय धरती पर अत्यधिक वायु न चले और न ही कोई मनुष्य ऊपर से देखे। हे वायुदेव ! आप इन्द्रदेव के मित्र हैं। अत: आप समस्त स्त्रियों और कुत्तों को सुला दें ॥२॥
६२३. प्रोष्ठेशयास्तल्पेशया नारीर्या वह्यशीवरीः।
स्त्रियो याः पुण्यगन्धयस्ताः सर्वाः स्वापयामसि॥३॥
जो नारियाँ घर के आँगन में सोती हैं। जो चलते वाहन पर सोने वाली हैं, जो बिछौने पर सोती है, जो उत्तम गंध से सुवासित श्रेष्ठ शय्याओं पर सोती हैं। हम उन्हीं की तरह से सभी स्त्रियों को सुखपूर्वक सुला देते हैं॥३॥
६२४. एजदेजदजग्रभं चक्षुः प्राणमजग्रभम्।
अङ्गान्यजग्रभं सर्वा रात्रीणामतिशवरे॥४॥
समस्त जंगम प्राणियों को हमने सुला दिया है और उनके आँखों की दर्शनशक्ति को हमने ग्रहण कर लिया है तथा प्राण- संचार स्थान में विद्यमान घ्राणेन्द्रिय को भी ग्रहण कर लिया है। रात्रि के अँधेरे में हमने उनके समस्त अंगों को निद्रा के वशीभूत कर लिया है॥४॥
६२५.य आस्ते यश्चरति यश्च तिष्ठन् विपश्यति।
तेषां सं दध्मो अक्षीणि यथेदं हर्म्यं तथा॥५॥
जो यहाँ ठहरता एवं आता-जाता रहता है और हमारी ओर देखता है, उनकी दृष्टि को हम राज-प्रासाद की तरह निश्चल बनाएँ॥५॥
६२६.स्वपतु माता स्वपतु पिता स्वपतु श्वा स्वपतु विश्पतिः।
स्वपन्त्वस्यै ज्ञातयः स्वप्त्वयमभितो जनः॥६॥
(श्वान के प्रति) तुम्हारी माँ शयन करे। तुम्हारे पिता सोएँ। स्वयं (श्वान) तुम भी सो जाओ। गृहस्वामी, सभी बान्धव एवं परिकर के सब लोग सो जाएँ॥६॥
६२७. स्वप्न स्वप्नाभिकरणेन सर्व नि ष्वापया जनम्।
ओत्सूर्यमन्यान्त्स्वापयाव्युषं जागृतादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः॥७॥
हे स्वप्न के अधिष्ठाता देव ! स्वप्न के साधनों द्वारा आप समस्त लोगों को सुला दें तथा अन्य लोगों को सूर्योदय तक निद्रित रखें। इस प्रकार सबके सो जाने पर हम इन्द्र के समान अहिंसित तथा क्षयरहित होकर प्रात:काल तक जागते रहें॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य