अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:06 – विषघ्न सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[६-विषघ्न सूक्त]
[ ऋषि – गरुत्मान्। देवता – तक्षक, १ ब्राह्मण, २ द्यावा- पृथिवी, सप्तसिन्धु ,३ सुपर्ण ४-८ विष। छन्द -अनुष्टुप्।]
६२८. ब्राह्मणो जज्ञे प्रथमो दशशीर्षो दशास्यः।
स सोमं प्रथमः पपौ स चकारारसं विषम्॥१॥
पहले दस शीर्ष तथा दस मुख वाला ब्राह्मण उत्पन्न हुआ, उसने पहले सोमपान किया। उस (सोमपान) से विष को असार-प्रभावहीन बना दिया॥१॥
[यह आलंकारिक वर्णन है। सृष्टि उत्पत्ति के समय उपयोगी पदार्थों के साथ विष का भी उद्भव हुआ था। ब्रह्म से उत्पन्न या ब्रह्मनिष्ठ को ब्राह्मण कहते हैं। उस प्रथम जन्मे ब्राह्मण (ब्रह्म के अनुशासन को फलित करने वाला दिव्य प्रवाह) के सिर (विचार तंत्र) तथा मुख (ग्रहण करने या प्रकट करने वाले तंत्र) दसों दिशाओं में थे, इसलिए उसे दस सिर एवं दस मुख वाला कहा गया। विष को प्रभावहीन बनाने वाला सोम-प्रवाह भी प्रकृति में उपलब्ध है, जिसे ब्रह्मनिष्ठ ही पान कर पाते हैं।]
६२९. यावती द्यावापृथिवी वरिम्णा यावत् सप्त सिन्धवो वितष्ठिरे।
वाचं विषस्य दूषणीं तामितो निरवादिषम्॥२॥
जितने विस्तार से द्यावा-पृथिवी फैली है और सप्त सिन्धु जितने परिमाण में फैले हैं, उतने स्थान तक के विष को दूर करने के लिए हम मन्त्रात्मिका वाणी का प्रयोग करते हैं॥२॥
६३०.सुपर्णस्त्वा गरुत्मान् विष प्रथममावयत् ।नामीमदो नारूरुप उतास्मा अभवः पितुः॥३॥
हे विष! वेगवान् गरुड़ पक्षी ने आपको पहले खा लिया था। वे न उन्मत्त हुए और न बेहोश हुए। आप उनके लिए अन्न के समान बन गये ॥३॥
[भाव यह है कि गरुड़ के पाचन तंत्र के लिए विष घातक नहीं-सामान्य अन्न जैसा बन जाता है। विष को निष्प्रभावी बनाने वाली ऐसी कोई प्रक्रिया ऋषि जानते थे।]
६३१. यस्त आस्यत् पञ्चाङ्कुरिर्वक्राच्चिदधि धन्वनः।
अपस्कम्भस्य शल्यान्निरवोचमहं विषम॥४॥
पाँच अंगुलियों वाले जिस हाथ ने आपको मुख रूप डोरी चढ़े हुए धनुष से मनुष्य के शरीर में डाल दिया है, उस विष को तथा विष वाले हाथ को हम अभिमंत्रित ओषधि द्वारा प्रभावहीन बनाते हैं॥४॥
६३२. शल्याद् विषं निरवोचं प्राञ्जनादुत पर्णधेः।
अपाष्ठाच्छङ्गात् कुल्मलानिरवोचमहं विषम्॥५॥
शल्य क्रिया द्वारा, लेप लगाकर, पत्तों या पंख वाले उपकरण से हमने विष दूर किया। नुकीले उपकरण से-शृंग प्रयोग से कुलाल (ओषधि विशेष) द्वारा हमने विष को हटाया है॥५॥
[विष हटाने की यह सब क्रियाएँ पूर्वकाल में प्रचलित थी। अंग प्रयोग में पोले सींग को विष के स्थान पर रखकर शोषण (वैक्यूम बनाकर विष खीचने) की प्रक्रिया अभी भी प्रचलित है।]
६३३. अरसस्त इषो शल्योऽथो ते अरसं विषम्।
उतारसस्य वृक्षस्य धनुष्टे अरसारसम्॥६॥
हे बाण ! आपका विष-सम्पन्न फलक विषरहित हो जाए और आपका विष भी वीर्यरहित हो जाए। उसके बाद रसहीन वृक्ष से बना आपका धनुष भी वीर्यरहित हो जाए॥६॥
६३४ ये अपीषन् ये अदिहन य आस्यन् ये अवासृजन्।
सर्वे ते वधयः कृता वधिर्विषगिरिः कृतः॥७॥
विषयुक्त ओषधि प्रदान करने वाले, लेपन विष को प्रयुक्त करने वाले, दूर से विष को फेंकने वाले तथा समीप में खड़े होकर अन्न, जल आदि में विष मिलाने वाले जो मनुष्य हैं, हमने उन मनुष्यों को मंत्र बल के द्वारा प्रभावहीन कर दिया। हमने उन पर्वतों को भी प्रभावहीन कर दिया, जिन पर विष उत्पन्न होते हैं॥७॥
६३५.वधयस्ते खनितारो वधिस्त्वमस्योषधे।
वधिः स पर्वतो गिरिर्यतो जातमिदं विषम्॥८॥
हे विषयुक्त ओषधे ! आपको खोदने वाले मनुष्य प्रभावहीन हो जाएँ और आप स्वयं भी प्रभावहीन हो जाएँ. तथा जिन पर्वतो और पहाड़ों पर आप उत्पन्न होती है, वे भी प्रभावहीन हो जाएँ ॥८॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य