November 28, 2023

अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:07 – विषनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[७- विषनाशन सूक्त]

[ ऋषि – गरुत्मान्। देवता – वनस्पति। छन्द – अनुष्टुप, ४ स्वराट् अनुष्टुप्।]

६३६. वारिदं वारयातै वरणावत्यामधि।तत्रामृतस्यासिक्तं तेना ते वारये विषम्॥१॥

वरणावती ओषधि में स्थित रस हमारे विष को दूर करे। इसमें अमृत का स्रोत है। उस अमृतोपम जल के द्वारा हम आपके विष को दूर करते हैं॥१॥

६३७. अरसं प्राच्यं विषमरसं यदुदीच्यम्।
अथेदमधराच्यं करम्भेण वि कल्पते॥२॥

पूर्व दिशा, उत्तर दिशा तथा दक्षिण दिशा में होने वाले विष निर्वीर्य हो जाएँ। इस प्रकार समस्त दिशाओं में होने वाले विष मंत्र-बल द्वारा निर्वीर्य हो जाएँ ॥२॥

६३८. करम्भं कृत्वा तिर्यं पीबस्पाकमुदारथिम्।
क्षुधा किल त्वा दुष्टनो जक्षिवान्त्स न रूरुपः॥३॥

हे दोषपूर्ण शरीर वाले! पीव (मेद,चर्बी) को पकाने वाले (श्रम) तथा भूख के अनुसार खाया गया (ओषधि मिलाकर बनाया गया) करंभ (मिश्रण) रोगनाशक है ।यह तुम्हें (विष के प्रभाव से) बेहोश नहीं होने देगा॥३॥

[शरीर में संव्याप्त विष को निरस्त करने के लिए यह चिकित्सा विज्ञान सम्मत सूत्र है। श्रम इतना कि उसके ताप से चर्बी गलने लगे। भूख के अनुरूप ओषधि मिश्रित सात्विक भोजन करने से विष का प्रभाव घटता ही है, वह बढ़ नहीं पाता।]

६३९. वि ते मदं मदावति शरमिव पातयामसि।
प्रत्वा चरुमिव येषन्तं वचसा स्थापयामसि॥४॥

हे ओषधे ! आपके विष को हम धनुष से छूटने वाले बाण के समान शरीर से दूर फेंकते हैं। हे विष ! गुप्तरूप से घूमने वाले दूत के समान शरीर के अङ्गों में संव्याप्त होते हुए आपको हम मंत्र-बल के द्वारा दूर फेंकते हैं॥४॥

६४०. परि ग्राममिवाचितं वचसा स्थापयामसि।
तिष्ठा वृक्ष इव स्थाम्न्यभिखाते न रूरूपः॥५॥

जनसमूह के समान इकट्ठे हुए विष को हम मंत्र बल के द्वारा बाहर निकालते हैं। हे कुदाल से खोदी हुई ओषधे ! आप अपने स्थान पर ही वृक्ष के समान रहें। इस व्यक्ति को मूर्छित न करें॥५॥

६४१. पवस्तैस्त्वा पर्यक्रीणन् दूर्शभिरजिनैरुत।
प्रक्रीरसि त्वमोषधेऽभिखाते न रूरूपः॥६॥

हे विषयुक्त ओषधे! महर्षियों ने आपको पवित्र (शोधित) करने के निमित्त फैलाए हए दर्भ के तृणों से क्रय कर लिया है। आप दुष्ट हिरणों के चर्म से क्रय की हुई हैं, इसलिए आप इस स्थान से भाग जाएँ। हे कुदाल से खोदी हुई ओषधे! आप इस व्यक्ति को मूर्छित न करें॥६॥

[यहाँ क्रय कर लेना, खरीद लेना शब्द- अपने अधिकार में लेने का प्रतीक है। उक्त साधनों से शोधित करके अपने अनुकूल बनाया गया विष मारक नहीं रह जाता, औषधि की तरह प्रयुक्त होता है।]

६४२. अनाप्ता ये वः प्रथमा यानि कर्माणि चक्रिरे।
वीरान् नो अत्र मा दभन् तद् व एतत् पुरो दधे॥७॥

हे मनुष्यो ! आपके प्रतिकूल चलने वाले जिन रिपुओं ने योग आदि प्रमुख कर्मों को किया है, उन कर्मों के द्वारा वे हमारे वीर पुत्रों को इस देश में न मारें। इस चिकित्सारूप कर्म को हम आपकी सुरक्षा के लिए आपके सामने प्रस्तुत करते हैं॥७॥

– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!