अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:08 – राज्याभिषेक सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[८- राज्याभिषेक सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वाङ्गिरा। देवता – चन्द्रमा, आपः, राज्याभिषेक, १ राजा, २ देवगण, ३ विश्वरूप, ४-५ आपः। छन्द – अनुष्टुप्, १,७ भुरिक् त्रिष्टुप् , ३ त्रिष्टुप् ५ विराट् प्रस्तार पंक्ति।]
प्राचीनकाल की परिस्थितियों के अनुसार अधिकांश आचार्यों ने इस सूक्त का अर्थ राजा परक किया है। व्यापक भाव से यह इन्द्र या सूर्य पर भी घटित होता है। ‘राजन्’ (प्रकाशमान), ‘वेन’ (तेजस्वी) जैसे संबोधन सूर्य के लिए प्रयुक्त होते ही हैं। वैसे परिवार या समाज के संरक्षक-शासक पर भी मंत्रार्थ घटित किये जा सकते हैं-
६४३. भूतो भूतेषु पय आ दधाति स भूतानामधिपतिर्बभूव।
तस्य मृत्युश्चरति राजसूयं स राजा राज्यमनु मन्यतामिदम्॥१॥
स्वयं उत्पन्न होकर, जो उत्पन्न हुए(जड़-चेतन) को पयः (पोषक रस) प्रदान करता है, वह सर्वभूतों का अधिपति हुआ। उसके राजसूय (राज्य को प्रेरणा देने वाले) प्रयोग के अनुरूप मृत्यु भी चलती है। वह राजा राज्य को मान्यता देकर आचरण करता है॥१॥
६४४.अभि प्रेहि माप वेन उग्रश्चेत्ता सपत्नहा।
आ तिष्ठ मित्रवर्धन तुभ्यं देवा अधि ब्रवन्॥२॥
हे उग्र, चेतना संचारक ‘वेन'(तेजस्वी) ! आप शत्रु विनाशक होकर आगे बढ़ें, पीछे न हटें। देवों ने आपको मित्रों का संवर्धन करने वाला कहा है, आप भली प्रकार स्थापित (प्रतिष्ठित) हों॥२॥
६४५. आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्रियं वसानश्चरति स्वरोचिः।
महत् तद् वृष्णो असरस्य नामा विश्वरूपो अमतानि तस्थौ॥३॥
स्थापित होने पर, विश्व से विभूषित होकर, श्री (वैभव) रूप वस्त्रों से आच्छादित होकर तथा स्वप्रकाशित होकर वे विचरण करते हैं। उस विश्वरूप, प्राणयुक्त, वर्षणशील का बड़ा नाम है। वह अमृत तत्त्वों पर स्थित (आधारित) रहता है॥३॥
६४६. व्याघ्रो अधि वैयाघ्र विक्रमस्व दिशो महीः।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्त्वापो दिव्याः पयस्वतीः॥४॥
हे व्याघ्र ! आप बाघ (विशिष्ट घ्राण शक्ति सम्पन्न) के समान दुर्धर्ष होते हुए विशाल दिशाओं को विजित करें। समस्त प्रजाएँ आपको अपना स्वामी स्वीकार करें और बरसने वाले दिव्य जल भी आपकी कामना करें॥४॥
६४७. या आपो दिव्याः पयसा मदन्त्यन्तरिक्ष उत वा पृथिव्याम्।
तासां त्वा सर्वासामपामभिषिञ्चामि वर्चसा॥५॥
अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी पर जो दिव्यजल अपने साररूप रस से प्राणियों को तृप्त करते हैं, उन समस्त जल के तेजस् से हम आपका अभिषेक करते हैं॥५॥
६४८. अभि त्वा वर्चसासिचन्नापो दिव्याः पयस्वतीः।
यथासो मित्रवर्धनस्तथा त्वा सविता करत्॥६॥
हे तेजस्विन् ! दिव्य रसयुक्त जल अपने तेजस् से आपको अभिषिक्त करे। आप जिस प्रकार मित्रों को समृद्ध करते हैं, उसी प्रकार सवितादेव आपको भी समृद्ध करें॥६॥
६४९. एना व्याघ्रं परिषस्वजानाः सिंहं हिन्वन्ति महते सौभगाय।
समुद्रं न सुभुवस्तस्थिवांसं मर्मृज्यन्ते द्वीपिनमप्स्व१न्तः॥७॥
समुद्र में द्वीप की तरह अप (सृष्टि के मूलतत्त्व) में व्याघ्र एवं सिंह जैसे पराक्रमी को यह दिव्य धाराएँ महान् सौभाग्य के लिए प्रेरित और विभूषित करती हैं ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य