अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:09 – आञ्जन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[९- आञ्जन सूक्त]
[ ऋषि – भृगु। देवता – त्रैककुदाञ्जन। छन्द – अनुष्टुप्, २ ककुम्मती अनुष्टुप्, ३ पथ्यापंक्ति। ]
६५०. एहि जीवं त्रायमाणं पर्वतस्यास्यक्ष्यम्।
विश्वेभिर्देवैर्दत्तं परिधिर्जीवनाय कम्॥१॥
हे अञ्जन मणे ! आप प्राणधारियों की सुरक्षा करने वाले पर्वत की नेत्ररूप हैं। आप देवताओं द्वारा प्रदत्त जीवन-रक्षक परिधि रूप में यहाँ पधारें॥१॥
६५१. परिपाणं पुरुषाणां परिपाणं गवामसि ।
अश्वानामर्वतां परिपाणाय तस्थिषे॥२॥
हे अञ्जन मणे ! आप मनुष्यों तथा गौओं की सुरक्षा करने वाले हैं। आप घोड़ों तथा घोड़ियों की सुरक्षा के लिए भी स्थित रहते हैं ॥२॥
६५२. उतासि परिपाणं यातुजम्भनमाजन।
उतामृतस्य त्वं वेत्थाथो असि जीवभोजनमथो हरितभेषजम्॥३॥
जिससे आँखों को निर्मल किया जाता है, ऐसे हे अञ्जन मणे ! आप राक्षसों द्वारा दी हुई यातनाओं को नष्ट करने वाले हैं और जीवों की सुरक्षा करने वाले हैं। आप स्वर्ग में स्थित अमृत को जानने वाले और प्राणियों के अनिष्ट को दूर करके उनकी सुरक्षा करने वाले हैं। आप पाण्डु- रोग की ओषधि हैं॥३॥
६५३. यस्याञ्जन प्रसर्पस्यङ्गमङ्गं परुष्परुः।
ततो यक्ष्म वि बाधस उग्रो मध्यमशीरिव॥४॥
हे अञ्जन मणे ! आप जिस मनुष्य के अंगों और जोड़ों में संव्याप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य के शरीर से क्षय आदि रोगों को मेघ उड़ाने वाली वायु के समान शीघ्र ही दूर कर देते हैं ॥४॥
६५४. नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या नाभिशोचनम्।
नैनं विष्कन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन॥५॥
हे अञ्जन मणे ! जो मनुष्य आपको धारण करते हैं, उनको दूसरों के द्वारा प्रेरित शाप नहीं प्राप्त होते और दूसरों के द्वारा प्रेरित अभिचार रूप कृत्या तथा कृत्या से होने वाले शोक नहीं प्राप्त होते। उनको गति-अवरोधक बाधाएँ भी नहीं प्राप्त होतीं ॥५॥
६५५.असन्मन्त्राद् दुष्वप्न्याद् दुष्कृताच्छमलादुर।
दुर्हार्दश्चक्षुषो घोरात् तस्मान्नः पाह्याञ्जन॥६॥
हे अञ्जन मणे ! अभिचारात्मक बुरे मंत्रों से उनके द्वारा प्राप्त होने वाले कष्टों से, बुरे स्वप्नों से, पापों से उत्पन्न होने वाले दुःखों से, बुरे मन तथा दूसरों की क्रूर आँखों से आप हमारी सुरक्षा करें ॥६॥
६५६. इदं विद्वानाञ्जन सत्यं वक्ष्यामि नानृतम्।
सनेयमश्वं गामहमात्मानं तव पूरुष॥७॥
हे अञ्जन मणे ! हम आपकी महिमा को जानते हैं, इसलिए हमने यह बात सत्य ही कही है, झूठ नहीं। अत: हम आपके द्वारा गौओं, घोड़ों और जीवों की सेवा करें ॥७॥
६५७. त्रयो दासा आञ्जनस्य तक्मा बलास आदहिः।
वर्षिष्ठः पर्वतानां त्रिककुन्नाम ते पिता॥८॥
कठिनाई से जीवन निर्वाह कराने वाले ज्वर, शरीर बल को कमजोर बनाने वाले सन्निपात तथा सर्प के विष-विकार आदि तीन रोग दास के समान ‘आञ्जन-द्रव्य’ के वशीभूत रहते हैं। हे अञ्जन मणे ! पर्वतों में श्रेष्ठ ‘त्रिककुद’ नामक पर्वत आपका पिता है॥८॥
६५८. यदाञ्जनं त्रैककुदं जातं हिमवतस्परि।
यातूंश्च सर्वाजम्भयत् सर्वाश्च यातुधान्यः॥९॥
हिम से घिरे हुए ‘त्रिककुद’ नामक पहाड़ पर उत्पन्न होने वाले अञ्जन समस्त यातुधानों तथा यातुधानियों को विनष्ट करते रहते हैं। इसलिए वे हमारे रोगों को भी नष्ट करें॥९॥
६५९. यदि वासि त्रैककुदं यदि यामुनमुच्यसे ।
उभे ते भद्रे नाम्नी ताभ्यां न: पाह्याञ्जन॥१०॥
हे अञ्जन मणे ! यदि आप ‘त्रिककुद’ है अथवा ‘यामुन’ कहलाते हैं, तो आपके ये दोनों नाम भी कल्याण करने वाले हैं । अत: आप अपने इन दोनों नामो से हमारी सुरक्षा करें ॥१०॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य