अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:11 – अनड्वान् सूक्त

अथर्ववेद संहिता
चतुर्थ काण्डम्
[११- अनड्वान् सूक्त]
[ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता– इन्द्र, अनड्वान। छन्द – त्रिष्टुप्, १,४ जगती, २ भुरिक् त्रिष्टुप्, ७ त्र्यवसाना षट्पदा अनुष्टपूगर्भा उपरिष्टात्जागतानिचृत्शक्वरी, ८-१२ अनुष्टुप्।]
अनड्वान् प्राणों को भी कहा गया अथर्व० ११.६.१०)। यह भाव इस सूक्त के संदर्भ में भी सटीक बैठता है-
६६७. अनड्वान् दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्व१न्तरिक्षम्।
अनड्वान् दाधार प्रदिशः षडुर्वीरनड्वान् विश्वं भुवनमा विवेश॥१॥
विश्वरूपी शकट को ढोने वाले वृषभरूप ईश्वर ने पृथ्वी को धारण किया है। उसने स्वर्गलोक, अन्तरिक्षलोक तथा पूर्व आदि छ: महादिशाओं और उर्वियों को भी धारण किया है । इस प्रकार वह अनड्वान् (शकटवाही) ईश्वर समस्त लोकों में प्रविष्ट हुआ है॥१॥
६६८. अनड्वानिन्द्रः स पशुभ्यो वि चष्टे त्रयाञ्छक्रो वि मिमीते अध्वनः।
भूतं भविष्यद् भुवना दुहानः सर्वा देवानां चरति व्रतानि॥२॥
इस अनड्वान् को इन्द्र कहते हैं। वे शक्र (इन्द्रदेव) तीनों (लोको) को नापते हैं तथा प्राणियों का निरीक्षण करते हैं, ये भविष्यत् और वर्तमानकाल में पदार्थों को उत्पन्न करते हुए देवताओं के सभी व्रतों को चलाते हैं॥२॥
६६९. इन्द्रो जातो मनुष्येष्वन्तर्घर्मस्तप्तश्चरति शोशुचानः।
सुप्रजाः सन्त्स उदारे न सर्षद् यो नाश्नीयादनडुहो विजानन्॥३॥
इन्द्रदेव ही ( जीवात्मारूप में) मनुष्यों के अन्दर प्रकट होते हैं। वे तपस्वी सूर्य की तरह प्रकाशित होते हुए विचरण करते हैं। वे भोजन नहीं करते और संचालक को जानते हुए (उसी के अनुशासन में ) श्रेष्ठ प्रज्ञायुक्त होकर रहते हैं तथा देहपात के बाद भी भटकते नहीं॥३॥
६७०. अनड्वान् दुहे सुकृतस्य लोक ऐनं प्याययति पवमानः पुरस्तात्।
पर्जन्यो धारा मरुत ऊधो अस्य यज्ञः पयो दक्षिणा दोहो अस्य॥४॥
सत्कर्म के पश्चात् प्राप्त होने वाले पुण्यलोक में यह ईश्वररूप अनड्वान् , इच्छित फल प्रदान करता है। पहले से पवित्र सोमरस इसको रस से परिपूर्ण करता है। पर्जन्य इसकी धाराएँ हैं, मरुद्गण इसके स्तन हैं और यज्ञ ही इसका पय (दुग्धं या जल) है। यज्ञ में प्रदान की जाने वाली दक्षिणा इस अनड्वान् की दोहन क्रिया है॥४॥
६७१. यस्य नेशे यज्ञपतिर्न यज्ञो नास्य दातेशे न प्रतिग्रहीता।
यो विश्वजिद् विश्वभृद् विश्वकर्मा धर्म नो ब्रूत यतमश्चतुष्पात्॥५॥
याजकगण इस देवस्वरूप अनड्वान् के स्वामी नहीं है। यज्ञक्रिया, दाता तथा प्रतिग्रहीता भी इसके स्वामी नहीं हैं। यह समस्त जगत् को विजित करने वाला तथा वायुरूप में सबका पालन-पोषण करने वाला है। जगत् के समस्त कर्म इसके ही हैं। यह चार चरण वाला हमें आलोकवान् सूर्य के विषय में उपदेश देता है॥५॥
६७२. येन देवाः स्वरारुरुहुर्हित्वा शरीरममृतस्य नाभिम्।
तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं धर्मस्य व्रतेन तपसा यशस्यवः॥६॥
जिस देवस्वरूप अनड्वान् के द्वारा देवगण शरीर का त्याग करके अमृत के केन्द्ररूप प्रकाश स्थान पर आरूढ़ हुए थे, उसी के द्वारा हम प्रदीप्त आदित्यदेव का व्रत करते हुए मोक्ष सुख की कामना करके पुण्य के फलरूप श्रेष्ठ लोक को प्राप्त करते हैं॥६॥
६७३. इन्द्रो रूपेणाग्निर्वहेन प्रजापतिः परमेष्ठी विराट्।
विश्वानरे अक्रमत वैश्वानरे अक्रमतानडुह्यक्रमत। सोऽदृंहयत सोऽधारयत॥७॥
इन्द्रदेव ही अपने स्वरूप से अग्नि हैं। वही सृष्टिकर्ता तथा प्रजापति समस्त विश्व को वहन करने के कारण ‘विराट्’ हुए। वही समस्त मनुष्यों, अग्नियों तथा रथ खींचने वालों में संव्याप्त हैं। वही सबको बल प्रदान करते हैं तथा सबको धारण करते हैं ॥७॥
६७४. मध्यमेतदनडुहो यत्रैष वह आहितः।
एतावदस्य प्राचीनं यावान् प्रत्यङ्समाहितः॥८॥
यह (यज्ञ) उस विश्व संवाहक का मध्य (भार उठाने वाला) भाग है। इस अनड्वान् वृषभ का अगला भाग उतने ही परिमाण वाला है, जितने परिमाण वाला पिछला भाग है॥८॥
६७५. यो वेदानडुहो दोहान्त्सप्तानुपदस्वतः।
प्रजां च लोकं चाप्नोति तथा सप्तऋषयो विदुः॥९॥
जो प्रजापति रूप अनड्वान् के लोक, समुद्र आदि सात प्रकार के दोहन स्रोतों को जानते हैं, वे श्रेष्ठ प्रजाओं तथा पुण्य लोकों को प्राप्त करते हैं। ऐसा (जो कहा गया), उसे सप्तऋषि ही जानते हैं॥९॥
६७६. पद्भिः सेदिमवक्रामन्निरां जयाभिरुत्खिदन्।
श्रमेणानड्वान् कीलालं कीनाशश्चाभि गच्छतः॥१०॥
यह प्रजापति सम्बन्धी अनड्वान् अपने चारों पैरों से दुःख लाने वाली अलक्ष्मी को अधोमुख करके उस पर आरूढ़ होता हुआ धरती को अपनी जंघाओं (पैरों) से कुरेटता हुआ तथा अपने श्रम के द्वारा अपने अनुकूल चलने वाले किसान को अन्न प्रदान करता है ॥१०॥
६७७. द्वादश वा एता रात्रीर्वत्या आहुः प्रजापतेः।
तत्रोप ब्रह्म यो वेद तद् वा अनडुहो व्रतम्॥११॥
ये बारह रात्रियाँ यज्ञात्मक प्रजापति के व्रत के योग्य है, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। उतने समय में पधारे हए वृषभरूप प्रजापति सम्बन्धी ब्रह्म को जो जानते हैं, वही इस अनडुहव्रत के अधिकारी हैं। यह ज्ञान अनडुह (विश्व संचालक) का अनुष्ठान है॥११॥
६७८. दुहे सायं दुहे प्रातर्दुहे मध्यन्दिनं परि।
दोहा ये अस्य संयन्ति तान् विद्यानुपदस्वतः॥१२॥
पूर्वोक्त लक्षण वाले वृषभ का, हम प्रात:काल, सायंकाल तथा मध्याह्नकाल में दोहन करते हैं। यज्ञानुष्ठान करने वाले के फलों का भी हम दोहन करते हैं। इस प्रकार जो इस अनड्वान् के दोहन फल से संयुक्त होते हैं-ऐसे अविनाशी दोहन कर्म को हम जानते हैं ॥१२॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य