अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:12 – रोहिणी वनस्पति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[१२ – रोहिणी वनस्पति सूक्त]
[ ऋषि – ऋभु। देवता – वनस्पति। छन्द – अनुष्टुप्, १ त्रिपदा गायत्री, ६ त्रिपदा यवमध्या भुरिक् गायत्री, ७ बृहती।]
इस सूक्त में टूटे अंगों को जोड़ने एवं जले-कटे घावों को भरने के लिए ‘रोहिणी’ नामक ओषधि का उल्लेख है । वैद्यक ग्रन्थों में इसके वीरवती (वीरों वाली) चर्मकवा, मांसरोही (चर्म तथा मांस को स्थापित करने वाली), प्रहारवल्ली (प्रहार के उपचार में प्रयुक्त) आदि नाम दिये गए हैं। मंत्रों में इसकी ऐसी उपचारपरक विशेषताओं का वर्णन है। पूर्वकाल के युद्धों के समय वैद्यगण रातभर में योद्धाओं के घावों का उपचार करके, उन्हें प्रात: फिर से यद्ध के योग्य बना देते थे। उसमें दिव्य ओषधि प्रयोगों के साथ मन्त्र शक्ति एवं प्राण शक्ति का प्रयोग भी किया जाता रहा होगा। मन्त्रों में दिये गए वर्णन से स्पष्ट होता है कि कटे हुए अंगों को हड्डी से हड्डी, मांस से मांस , चमड़ी से चमड़ी जोड़ने की क्षमता उन्हें प्राप्त थी। रुधिर, मांस, हड्डियों को आवश्यकतानुसार बढ़ाने की कला भी उन्हें ज्ञात थी-
६७९. रोहण्यसि रोहण्यस्मश्छिन्नस्य रोहणी। रोहयेदमरुन्धति॥१॥
हे लाल वर्ण वाली रोहिणि ! आप टूटी अस्थियों को पूर्णता प्रदान करने वाली हैं। हे अरुन्धति ! (उपचार के मार्ग में बाधा न आने देने वाली) आप इस (घाव आदि) को भर दें॥१॥
६८०. यत् ते रिष्टं यत् ते द्युत्तमस्ति पेष्ट्र त आत्मनि।
धाता तद् भद्रया पुनः सं दधत् परुषा परुः॥२॥
(हे घायल व्यक्ति) आपके जो अंग चोट खाये हए या जले हुए हैं, प्रहार से जो अंग टूट या पिस गये हैं; उन समस्त अंगों को देवगण इस भद्रा (हितकारी ओषधि या शक्ति) के माध्यम से जोड़ दें-ठीक कर दें॥२॥
६८१. सं ते मज्जा मज्ज्ञा भवतु समु ते परुषा परुः।
सं ते मांसस्य विस्त्रस्तं समस्थ्यपि रोहतु॥३॥
(हे घायल मनुष्य !) आपके शरीर में स्थित छिन्न मज्जा पुन: बढ़कर सुखकारी हो जाए, पोरु से पोरु जुड़ जाएँ । मांस का छिन्न-भिन्न हुआ भाग तथा हड़ी भी जड़कर ठीक हो जाए॥३॥
६८२. मज्जा मज्जा सं धीयतां चर्मणा चर्म रोहतु।
असृक् ते अस्थि रोहतु मांसं मांसेन रोहतु॥४॥
छिन्न-भिन्न मज्जा-मज्जा से, मांस-मांस से तथा चर्म-चर्म से मिल जाए। रुधिर एवं हड्डियाँ भी बढ़ जाएँ॥४॥
६८३. लोम लोम्ना संकल्पया त्वचा संकल्पया त्वचम्।
असृक् ते अस्थि रोहतु च्छिन्नं सं धेह्योषधे॥५॥
हे ओषधे ! (शस्त्र प्रहार से अलग हुए आप रोम को रोम से, त्वचा को त्वचा से मिलाकर ठीक कर दें तथा आपके द्वारा हड्डियों का रक्त दौड़ने लगे। टूटे हए अन्य अंगों को भी आप जोड़ दें॥५॥
६८४. स उत् तिष्ठ प्रेहि प्र द्रव रथः सुचक्रः सुपविः सुनाभिः। प्रति तिष्ठोर्ध्वः॥६॥
(हे छिन्न-भिन्न अंग वाले मनुष्य !) आप (मंत्र और ओषधि के बल से) स्वस्थ होकर अपने शयन स्थान से उठ करके वेगपूर्वक गमन करें । जिस प्रकार श्रेष्ठ चक्रों वाले, सदढ़ नेमि वाले तथा सदढ़ नाभि वाले रथ दौड़ते हुए प्रतिष्ठित होते हैं, उसी प्रकार आप भी सुदृढ़ अंग वाले होकर दौड़ते हुए प्रतिष्ठित हों॥६॥
६८५. यदि कतँ पतित्वा संशश्रे यदि वाश्मा प्रहतो जघान।
ऋभू रथस्येवाङ्गानि सं दधत् परुषा परुः॥७॥
घाव, धारवाले शस्त्र के प्रहार से हुआ हो या पत्थर की चोट से हुआ हो, जिस प्रकार ऋभुदेव (या कुशल शिल्पी) रथों के अंग-अवयव जोड़ देते हैं; वैसे ही पोरु से पोरु जुड़ जाएँ ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य