अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:14 – स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[१४ – स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त]
[ ऋषि – भृगु। देवता – आज्य, अग्नि। छन्द – त्रिष्टुप् , २,४ अनुष्टुप्, ३ प्रस्तारपंक्ति, ७,९ जगती, ८ पञ्चपदा अतिशक्वरी।]
६९३. अजो ह्य१ग्नेरजनिष्ट शोकात् सो अपश्यज्जनितारमग्रे।
तेन देवा देवतामग्र आयन् तेन रोहान् रुरुहुर्मेध्यासः॥१॥
अग्नि ही ‘अज’ है। यह दिव्य तेज से उत्पन्न है। इस अज (जन्मरहित यज्ञाग्नि अथवा काया में जीव रूप स्थित प्राणाग्नि) ने पहले अपने उत्पन्नकर्ता को देखा (उसकी ओर सहज उन्मुख हुआ)। इस अज की सहायता से देवों ने देवत्व प्राप्त किया, दूसरे मेधावी (ऋषिगण) उच्च लोकों तक पहुँचे ॥१॥
६९४. क्रमध्वमग्निना नाकमुख्यान् हस्तेषु बिभ्रतः।
दिवस्पृष्ठं स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वम्॥२॥
हे मनुष्यो ! आप लोग अन्न को हाथ में लेकर अग्नि की सहायता से (यज्ञ करते हुए) स्वर्गलोक को प्राप्त करें, उसके बाद द्युलोक के पृष्ठ भाग उन्नत स्वर्ग में जाकर आत्मिक ज्योति को प्राप्त करते हुए देवताओं के साथ मिलकर बैठे॥२॥
६९५. पृष्ठात् पृथिव्या अहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद् दिवमारुहम्।
दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्व१ज्योतिरगामहम्॥३॥
हम भूलोक के पृष्ठ भाग से अन्तरिक्षलोक में चढ़ते हैं और अन्तरिक्षलोक से द्युलोक में चढ़ते हैं। हमने सुखमय द्युलोक से ऊपर, स्वज्योति (आत्म-ज्योति) को प्राप्त किया॥३॥
६९६. स्व१र्यन्तो नापेक्षन्त आ द्यां रोहन्ति रोदसी।
यज्ञं ये विश्वतोधारं सुविद्वांसो वितेनिरे॥४॥
जो श्रेष्ठ ज्ञानी जन विश्व को धारण करने वाले यज्ञ का विस्तार करते हैं। वे आत्मज्योति-सम्पन्न द्युलोक की अभिलाषा नहीं करते। वे पृथ्वी, अन्तरिक्ष एवं द्युलोक से ऊपर उठ जाते हैं॥४॥
६९७. अग्ने प्रेहि प्रथमो देवतानां चक्षुर्देवानामुत मानुषाणाम्।
इयक्षमाणा भृगुभिः सजोषाः स्वर्यन्तु यजमानाः स्वस्ति॥५॥
हे अग्निदेव! आप देवों में प्रमुख हैं, इसलिए आप बुलाने योग्य स्थान में पधारें। आप देवताओं एवं मनुष्यों के लिए नेत्र रूप हैं। आपकी संगति चाहने वाले याजकगण भृगुओं (तपस्वियों) के साथ प्रीतिरत होकर स्व: (आत्म-तत्त्व या स्वर्ग) तथा स्वस्ति (कल्याण) को प्राप्त करें ॥५॥
६९८. अजमनज्मि पयसा घृतेन दिव्यं सुपर्ण पयसं बृहन्तम्।
तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम्॥६॥
इस दिव्य गतिशील, वर्द्धमान, सुवर्ण (तेजस्वी) ‘अज’ का हम पय (दुग्ध या रस) तथा घृत (घी या सार अंश) से यजन करते हैं। उस (अज) के माध्यम से आत्म-चेतना को पुण्य लोकों की ओर उन्मुख करके उत्तम स्वर्ग की प्राप्ति करेंगे॥६॥
६९९. पञ्चौदनं पञ्चभिरङ्गुलिभिर्दर्व्योद्धर पञ्चधैतमोदनम्।
प्राच्यां दिशि शिरो अजस्य धेहि दक्षिणायां दिशि दक्षिणं घेहि पार्श्वम्॥७॥
पाँच प्रकार से बँटने वाले अन्न को पाँचों अंगुलियों के द्वारा पाँच भागों में विभक्त करें। इस ‘अज’ के सिर को पूर्व दिशा में रखें तथा इसके दाहिने भाग को दक्षिण दिशा में रखें॥७॥
७००. प्रतीच्यां दिशि भसदमस्य धेह्युत्तरस्यां दिश्युत्तरं धेहि पार्श्वम्।
ऊर्ध्वायां दिश्य१जस्यानूकं धेहि दिशि ध्रुवायां धेहि पाजस्यमन्तरिक्षे मध्यतो मध्यमस्य॥८॥
इस ‘अज’ के कटिभाग को पश्चिम दिशा में स्थापित करें, उत्तर पार्श्व भाग को उत्तर दिशा में स्थापित करें। पीठ को ऊर्ध्व दिशा में स्थापित करें और पेट को ध्रुव (नीचे) दिशा में स्थापित करें तथा इसके मध्य भाग को मध्य अन्तरिक्ष में स्थापित करें॥८॥
७०१. शृतमजं शृतया प्रोर्णुहि त्वचा सर्वैरङ्गैः सम्भृतं विश्वरूपम्।
स उत् तिष्ठेतो अभि नाकमुत्तमं पद्भिश्चतुर्भिः प्रति तिष्ठ दिक्षु॥९॥
अपने समस्त अंगों से सम्यकप से विश्वरूप बने, परिपूर्ण ‘अज’ को ईश्वर के आच्छादन से ढकें। हे अज! आप इस लोक से स्वर्गलोक की तरह चारों पैरों से चढ़ते हुए चारों दिशाओं में संव्याप्त हों॥९॥
[मंत्र ७-८ में अज (यज्ञाग्नि या प्राणाग्नि) को विराट् रूप देकर विभिन्न दिशाओं में स्थापित करने का भाव है। दिशाओं के बोध कराने का भी उचित ढंग वर्णित है। अज को यज्ञ एवं जीवन को पूरी तरह विराट् में समर्पित कर देने का भाव ९ में है।]
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य