November 28, 2023

अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:16 – सत्यानृतसमीक्षक सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[१६- सत्यानृतसमीक्षक सूक्त]

[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – वरुण। छन्द – त्रिष्टुप्, १ अनुष्टप् ५ भुरिक त्रिष्टुप्, ७ जगती, ८ त्रिपात् महाबृहती ९ त्रिपदा विराट् गायत्री।]

७१८. बृहन्नेषामधिष्ठाता अन्तिकादिव पश्यति।
य स्तायन्मन्यते चरन्त्सर्वं देवा इदं विदुः॥१॥

महान् अधिष्ठाता (वरुणदेव) सभी वस्तुओं के जानने वाले हैं। वे समस्त कर्मों को निकटता से देखते हैं तथा सबके वृत्तान्तों को जानते हैं॥१॥

७१९. यस्तिष्ठति चरति यश्च वञ्चति यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम्।
द्वौ संनिषद्य यन्मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस्तृतीयः॥२॥

जो स्थित रहता है, जो चलता है, जो गुप्त (बल भरा) अथवा खुला व्यवहार करता है तथा जब दो मनुष्य एक साथ बैठकर गुप्त विचार-विमर्श करते हैं, तब उनमें तीसरे (उनसे भिन्न) होकर राजा वरुणदेव उन सबको जानते हैं॥२॥

७२०. उतेयं भूमिर्वरुणस्य राज्ञ उतासौ द्यौर्बहती दूरेअन्ता।
उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी उतास्मिन्नल्प उदके निलीनः॥३॥

यह पृथ्वी और दूर अन्तर पर मिलने वाला विशाल धुलोक राजा वरुण के वश में है। पूर्व-पश्चिम के दोनों समुद्र भी वरुणदेव की दोनों कोखें हैं । इस प्रकार वे(जगत् को व्याप्त करते हुए) थोड़े जल में भी विद्यमान हैं॥३॥

७२१. उत यो द्यामतिसर्पात् परस्तान्न स मुच्यातै वरुणस्य राज्ञः।
दिव स्पश: प्रचरन्तीदमस्य सहस्राक्षा अति पश्यन्ति भूमिम्॥४॥

जो (अनुशासनहीन) द्युलोक से परे चले जाते हैं, वे भी राजा वरुण के पाशों से मुक्त नहीं हो सकते; क्योंकि उनके दिव्य दूत पृथ्वी पर विचरण करते हैं और अपनी हजारों आँखों से भूमि का निरीक्षण करते रहते हैं॥४॥

७२२. सर्वं तद् राजा वरुणो वि चष्टे यदन्तरा रोदसी यत् परस्तात्।
संख्याता अस्य निमिषो जनानामक्षानिव श्वघ्नी नि मिनोति तानि॥५॥

द्यावा-पृथिवी के बीच में निवास करने वाले तथा अपने सामने निवास करने वाले प्राणियों को राजा वरुणदेव विशेष रूप से देखते हैं। वे मनुष्यों की पलकों के झपकों को उसी प्रकार गिनते तथा नापते हैं, जिस प्रकार जुआरी अपने पासों को नापता रहता है॥५॥

७२३. ये ते पाशा वरुण सप्तसप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विषिता रुशन्तः।
छिनन्तु सर्वे अनृतं वदन्तं यः सत्यवाद्यति तं सृजन्तु॥६॥

हे वरुणदेव! पापी मनुष्यों को बाँधने के लिए आपके जो उत्तम, मध्यम और अधम सात-सात पाश हैं, वे असत्य बोलने वाले रिपुओं को छिन्न-भिन्न करें और सत्यभाषी पुण्यात्माओं को मुक्त करें॥६॥

७२४. शतेन पाशैरभि धेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ् नृचक्षः।
आस्तां जाल्म उदरं श्रंसयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः॥७॥

हे वरुणदेव! आप अपने सैकड़ों पाशों द्वारा इस (रिपु) को बाँधे। हे मनुष्यों को देखने वाले वरुणदेव! मिथ्याभाषी मनुष्य आपसे बचने न पाएँ। दुष्ट मनुष्य अपने उदर को पतित (नष्ट) करके, बिना बँधे (व्यक्त) कोश की तरह उपेक्षित पड़ा रहे॥७॥

७२५. यः समाम्यो३ वरुणो यो व्याम्यो३ यः संदेश्यो३ वरुणो यो विदेश्यः।
यो दैवो वरुणो यश्च मानुषः॥८॥

जो सम है-जो विषम है, जो देश (क्षेत्र) में रहने वाला अथवा विदेश (विशिष्ट क्षेत्र) में रहने वाला है, जो देवों से सम्बन्धित है या मनुष्यों से सम्बन्धित है, वह सब वरुण का (पाश या प्रभाव) ही है॥८॥

७२६. तैस्त्वा सर्वैरभि ष्यामि पाशैरसावामुष्यायणामुष्याः पुत्र।
तानु ते सर्वाननुसंदिशामि॥९॥

हे अमुक माता-पिता के पुत्रो ! हम आपको पूर्व ऋचा में वर्णित वरुणदेव के समस्त पाशों (प्रभावों) से बाँधते हैं। आपके लिए उन सबको प्रेरित करते हैं ॥९॥

– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

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