अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:18 – अपामार्ग सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[१८ – अपामार्ग सूक्त]
[ ऋषि – शुक्र। देवता – अपामार्ग वनस्पति। छन्द – अनुष्टुप्, ६ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्।]
७३५. समं ज्योतिः सूर्येणाह्रा रात्री समावती।
कृणोमि सत्यमूतयेऽरसाः सन्तु कृत्वरीः॥१॥
जिस प्रकार प्रभा और सूर्य का तथा दिन और रात्रि का समानत्व सत्य है, उसी प्रकार हम भी सत्य की रक्षा के लिए यत्न करते हैं। जिससे हिंसा करने वाली कृत्याएँ निष्क्रिय हो जाएँ॥१॥
७३६. यो देवाः कृत्यां कृत्वा हरादविदुषो गृहम्।
वत्सो धारुरिव मातरं तं प्रत्यगुप पद्यताम्॥२॥
हे देवो! जो (दुष्ट व्यक्ति) अनजान व्यक्ति के घर कृत्या को प्रेरित करे, वह कृत्या वापस लौटकर उस अभिचारी पुरुष से इस प्रकार लिपटे, जिस प्रकार दूध पीने वाला बच्चा अपनी माता से लिपटता है॥२॥
७३७. अमा कृत्वा पाप्मानं यस्तेनान्यं जिघांसति।
अश्मानस्तस्यां दग्धायां बहलाः फट् करिक्रति॥३॥
जो पापात्मा, गुप्त स्थान में कृत्या प्रयोग करके उससे दूसरों की हिंसा करते हैं, उस दग्ध क्रिया (अग्नि संयोग) वाली विधि में बहुत से पत्थर ‘फट’ शब्द पुन:-पुन: करते हैं ॥३॥
[इस अग्नि संयोग से किये जाने वाले कृत्या प्रयोग में ‘फट’ करने वाले, विस्फोटक पदार्थों (गंधक, सोरा, मेनशिल पोटाश जैसे ठोस पदार्थों ) का प्रयोग किये जाने का यहाँ आभास मिलता है।]
७३८. सहस्रधामन् विशिखान् विग्रीवाञ्छायया त्वम्।
प्रति स्म चक्रुषे कृत्यां प्रियां प्रियावते हर॥४॥
हे हजारों स्थानों में उत्पन्न होने वाली सहदेवी ओषधे! आप हमारे रिपुओं को कटे हुए बालों वाले तथा कटे हुए ग्रीवा वाले करके, विनष्ट कर डालें। उनकी प्रिय कृत्या शक्ति को उन्हीं के पास पहुँचा दें॥४॥
७३९. अनयाहमोषध्या सर्वाः कृत्या अदूदुषम्।
यो क्षेत्रे चक्रुयाँ गोषु यां वा ते पुरुषेषु॥५॥
जिस कृत्या को बीज बोने योग्य स्थान में गाड़ा गया है, जिस कृत्या को गौओं के बीच में गाड़ा गया है, जिसको वायु- प्रवाह के स्थान में रखा गया है तथा जिसको मनुष्यों के गमन स्थान में गाड़ा गया है, उन सब कृत्याओं को हम सहदेवी ओषधि से दूषित (प्रभावहीन) करते हैं॥५॥
७४०. यश्चकार न शशाक कर्तुं शश्रे पादमङ्कुरिम्।
चकार भद्रमस्मभ्यमात्मने तपनं तु सः॥६॥
जो (शत्रुगण) कृत्या प्रयोग करते हैं, किन्तु कर नहीं पाते, पैर की अंगुली आदि ही तोड़ने का प्रयास करते हैं, उनके लिए वह (कृत्या) पीड़ा उत्पन्न करे तथा हमारा भला करे॥६॥
७४१. अपामार्गोऽप मार्ष्टु क्षेत्रियं शपथश्च यः।
अपाह यातुधानीरप सर्वा अराय्यः॥७॥
अपामार्ग नामक ओषधि हमारे आनुवंशिक रोगों तथा शत्रुओं के आक्रोशों को हमसे दूर करे। वह पिशाचियों तथा समस्त अलक्ष्मियों को भी बन्धनग्रस्त करके हमसे दूर करे॥७॥
७४२. अपमृज्य यातुधानानप सर्वा अराय्यः।
अपामार्ग त्वया वयं सर्वं तदप मृज्महे॥८॥
हे अपामार्ग ओषधे ! आप यातना देने वाले समस्त यक्ष-राक्षसों तथा निर्धन बनाने वाले समस्त पाप-देवताओं को हमसे दूर करें। आपके साधनों के द्वारा हम अपने समस्त दुःखों को दूर करते हैं ॥८॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य