अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:21 – गोसमूह सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[२१- गोसमूह सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मा। देवता – गो-समूह। छन्द – त्रिष्टुप् २-४ जगती।]
७६०. आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयन्त्वस्मे।
प्रजावती: पुरुरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः॥१॥
गौएँ हमारे घर आकर हमारा कल्याण करें। वे (गौएँ) गोशाला में रहकर हमें आनन्दित करें। इन गौओं में अनेक रंग-रूप वाली गौएँ बछड़ों से युक्त होकर, उषाकाल में इन्द्रदेव के निमित्त दुग्ध प्रदान करें॥१॥
७६१. इन्द्रो यज्वने गृणते च शिक्षत उपेद् ददाति न स्वं मुषायति।
भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये नि दधाति देवयुम्॥२॥
हे इन्द्रदेव ! आप याजक एवं स्तोताओं के लिए अभिलषित अन्न-धन प्रदान करते हैं। उनके धन का कभी हरण नहीं करते, वरन् उसे निरन्तर बढ़ाते हैं। देवत्व को प्राप्त करने की इच्छा वालों को अखण्डित एवं सुरक्षित निवास देते हैं ॥२॥
[आगे की कुछ ऋचाएँ गौओं को लक्ष्य करके कही गयी हैं। इनके अर्थ लौकिक गौओं के साथ ही इन्द्र या यज्ञ के पोषक प्रवाहों के ऊपर भी घटित होते हैं। ऋचा क०५ में तो स्पष्ट गौओं को इन्द्ररूप कहा गया है। शक्ति प्रवाहों (किरणों) को ही यह संज्ञा दी जा सकती है।]
७६२. न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति।
देवांश्च याभिर्यजते ददाति च ज्योगित् ताभिः सचते गोपतिः सह॥३॥
वे गौएँ नष्ट नहीं होती, तस्कर उन्हें हानि नहीं पहुँचा पाते। शत्रु के अस्त्र उन गौओं को क्षति नहीं पहुँचा पाते। गौओं के पालक जिन गौओं से देवों का यजन करते हैं, उन्हीं गौओं के साथ चिरकाल तक सुखी रहे॥३॥
७६३. न ता अर्वा रेणुककाटोऽश्नुते न संस्कृतत्रमुप यन्ति ता अभि।
उरुगायमभयं तस्य ता अनु गावो मर्तस्य वि चरन्ति यज्वनः॥४॥
रेणुका (धूल) उड़ाने वाले द्रुतगामी अश्व भी उन गौओं को नहीं पा सकेंगे। इन गौओं पर, वध करने के लिए आघात न करें। याजक की ये गौएँ विस्तृत क्षेत्र में निर्भय होकर विचरण करें॥४॥
७६४. गावो भगो गाव इन्द्रो म इच्छाद् गावः सोमस्य प्रथमस्य भक्षः।
इमा या गावः स जनास इन्द्र इच्छामि हृदा मनसा चिदिन्द्रम्॥५॥
गौएँ हमें धन देने वाली हों। हे इन्द्रदेव! आप हमें गौएँ प्रदान करें। गो-दुग्ध प्रथम सोमरस में मिलाया जाता है। हे मनुष्यो ! ये गौएँ ही इन्द्ररूप हैं। उन्हीं इन्द्रदेव को हम श्रद्धा के साथ पाना चाहते हैं॥५॥
[‘ये गौएँ ही इन्द्र हैं’- रहस्यात्मक है। इन्द्र संगठक शक्ति के देवता हैं। परमाणुओं में घूमने वाले इलेक्ट्रॉन्स को न्युक्लियस से बाँधे रहना उन्हीं का कार्य है। यह बन्धन शक्ति किरणों का ही है। ये गौएँ-शक्ति किरणें ही इन्द्र का वास्तविक रूप है।]
७६५. यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित् कृणुथा सुप्रतीकम्।
भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद् वो वय उच्यते सभासु॥६॥
हे गौओ !आप हमें बलवान् बनाएँ। आप हमारे रुग्ण एवं कृश शरीरों को सुन्दर-स्वस्थ बनाएँ। आप अपनी कल्याणकारी ध्वनि से हमारे घरों को पवित्र करें। यज्ञ मण्डप में आपके द्वारा प्राप्त अन्न का ही यशोगान होता है।
७६६. प्रजावती: सूयवसे रुशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः।
मा व स्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वणक्तु॥७॥
हे गौओ ! आप बछड़ों से युक्त हो। उत्तम घास एवं सुखकारक स्वच्छ जल का पान करें। आपका पालक चोरी करने वाला न हो। हिंसक पशु आपको कष्ट न दें। परमेश्वर का कालरूप अस्त्र आपके पास ही न आए ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य