अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:24 – पापमोचन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[२४ – पापमोचन सूक्त]
[ ऋषि – मृगार। देवता – इन्द्र। छन्द – त्रिष्टुप्, १ शक्वरीगर्भा पुरः शक्वरी त्रिष्टुप्।]
७८१. इन्द्रस्य मन्महे शश्वदिदस्य मन्महे वृत्रघ्न स्तोमा उप मेम आगुः।
यो दाशषः सुकृतो हवमेति स नो मञ्चत्वंहसः॥१॥
परम ऐश्वर्य-सम्पन्न इन्द्रदेव के माहात्म्य को हम जानते हैं । वृत्रहन्ता इन्द्रदेव के महत्त्व को हम सदा से जानते हैं। उनके समक्ष बोले जाने वाले स्तोत्र हमारे पास आ गए हैं। जो दानी इन्द्रदेव सत्कर्म करने वाले यजमान की पुकार को सुनकर समीप आते हैं, वे हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥१॥
७८२. य उग्रीणामुग्रबाहुर्ययुर्यो दानवानां बलमारुरोज।
येन जिताः सिन्धवो येन गावः स नो मुञ्चत्वंहसः॥२॥
जो उग्रबाहु वाले इन्द्रदेव प्रचण्ड रिपु सेनाओं में फूट डालने वाले हैं, जिन्होंने दानवों की शक्ति को विनष्ट किया है, जिन्होंने मेघों को फाड़कर उन्हें विजित किया है, जिन्होंने वृत्र को नष्ट करके नदियों और समुद्रों को जीता है, जिन्होंने असुरों को विनष्ट करके उनकी गौओं को जीत लिया है; वे इन्द्रदेव हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥२॥
७८३. यश्चर्षणिप्रो वृषभः स्वर्विद् यस्मै ग्रावाणः प्रवदन्ति नृम्णम्।
यस्याध्वरः सप्तहोता मदिष्ठः स नो मुञ्चत्वंहसः॥३॥
जो इन्द्रदेव मनुष्यों को इच्छित फल देकर उनकी इच्छाओं को पूर्ण करते हैं, जो वृषभ के समान स्वर्ग प्राप्त कराने में सक्षम हैं, जिनके लिए अभिषवकारी पत्थर कूटने की ध्वनि द्वारा सोमरसरूपी धन (इन्द्र-इन्द्र) कहते हैं, जिनका सोमयाग सात होताओं द्वारा सम्पन्न होकर आनन्ददायी होता है; वे इन्द्र हमें समस्त पापों से मुक्त करें ॥३॥
७८४. यस्य वशास ऋषभास उक्षणो यस्मै मीयन्ते स्वरवः स्वर्विदे।
यस्मै शुक्रः पवते ब्रह्मशुम्भितः स नो मुञ्चत्वंहसः॥४॥
जिन इन्द्रदेव के नियन्त्रण में सेचन (तेज स्थापन) में समर्थ ऋषभादि (बैल या वर्षणशील श्रेष्ठ देव) रहते हैं, जिनके लिए आत्म तत्त्व के ज्ञाता यज्ञादि की स्थापना करते हैं, जिनके लिए ब्रह्म (या वेदवाणी) द्वारा शोधित सोम प्रवाहित होता है, वे हमें पापों से बचाएँ॥४॥
७८५. यस्य जुष्टिं सोमिनः कामयन्ते यं हवन्त इषुमन्तं गविष्टौ।
यस्मिन्नर्कः शिश्रिये यस्मिन्नोज: स नो मुञ्चत्वंहसः॥५॥
जिन इन्द्रदेव की प्रीति को सोम-याजक चाहते हैं, जिन शस्त्रधारी इन्द्रदेव को गौओं (इन्द्रियों या किरणों) की रक्षार्थ बुलाया जाता है, जिनमें मंत्र आश्रय पाते हैं तथा जिनमें अद्वितीय ओज रहता है; वे इन्द्रदेव हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥५॥
७८६. यः प्रथमः कर्मकृत्याय जज्ञे यस्य वीर्यं प्रथमस्यानुबुद्धम्।
येनोद्यतो वज्रोऽभ्यायताहिं स नो मुञ्चत्वंहसः॥६॥
जो इन्द्रदेव प्रथम कर्म करने के लिए प्रकट हुए, जिनका वृत्रहनन आदि अद्वितीय पराक्रम सर्वत्र जाना जाता है। इनके द्वारा उठाए गए वज्र ने वृत्रासुर को सब ओर से विनष्ट कर डाला, वे इन्द्र हमें समस्त पापों से मुक्त करे॥६॥
७८७. यः सङ्ग्रामान् नयति संयुधे वशी यः पुष्टानि संसृजति द्वयानि।
स्तौमीन्द्रं नाथितो जोहवीमि स नो मुञ्चत्वंहसः॥७॥
जो इन्द्रदेव स्वतन्त्र प्रहार करने वाले युद्ध में, योद्धाओं को युद्ध करने के लिए पहुँचाते हैं, जो दोनों पुष्ट जोड़ों को परस्पर संसृष्ट करते हैं, उन इन्द्रदेव की हम स्तोतागण स्तुति करते हुए उन्हें बारम्बार पुकारते हैं। वे हमें समस्त पापों से मुक्त करें ॥७॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य