अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:26 – पापमोचन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[२६ – पापमोचन सूक्त]
[ ऋषि – मृगार। देवता – द्यावा-पृथिवी। छन्द – त्रिष्टुप् १ पुरोऽष्टि जगती,७ शाक्वरगर्भातिमध्येज्योति त्रिष्टुप्।]
७९५. मन्वे वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ सचेतसौ ये अप्रथेथाममिता योजनानि।
प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां ते नो मुञ्चतमंहसः॥१॥
हे द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों मनोहर भोग वाले तथा समान विचार वाली हैं, हम आपकी महिमा जानते हुए, आपकी प्रार्थना करते हैं। आप दोनों असीमित योजनों की दूरी तक फैले हैं और देवों तथा मनुष्यों के धन-वैभव के मूल कारण हैं। आप हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥१॥
७९६. प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां प्रवृद्धे देवी सुभगे उरूची।
द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः॥२॥
हे द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों समस्त ऐश्वर्यों की प्रतिष्ठा करने वाली हैं तथा समस्त प्राणियों के आश्रय-स्थल हैं। आप दान आदि गुणों तथा समस्त सौभाग्यों से सम्पन्न हैं। आप हमारे लिए सुखदायी बनकर हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥२॥
७९७. असन्तापे सुतपसौ हुवेऽहमुर्वी गम्भीरे कविभिर्नमस्ये।
द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः॥३॥
समस्त प्राणियों के कष्टों को दूर करने वाली, क्रान्तदर्शी ऋषियों द्वारा नमनीय, अत्यधिक विस्तृत तथा अत्यधिक गम्भीर द्यावा-पृथिवी का हम आवाहन करते हैं। वे द्यावा-पृथिवी हमारे लिए सुखदायी हों और हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥३॥
७९८. ये अमृतं बिभृथो हवींषि ये स्रोत्या बिभृथो ये मनुष्यान्।
द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः॥४॥
हे द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों जो समस्त प्राणियों के अमरत्वरूप जल तथा हविष्यान्न धारण करती हैं, जो प्रवहमान नदियों तथा मनुष्यों को धारण करती हैं, ऐसे आप हमारे लिए सुखदायी हों और समस्त पापों से हमें मुक्त करें॥४॥
७९९. ये उस्रिया बिभृथो ये वनस्पतीन् ययोवाँ विश्वा भुवनान्यन्तः।
द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः॥५॥
हे द्यावा-पृथिवि! आप जिन समस्त गौओं तथा वनस्पतियों का पोषण करती हैं, आप दोनों के बीच में जो समस्त विश्व निवास करता है, ऐसे आप दोनों हमारे लिए सुखदायी हों और हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥५॥
८००. ये कीलालेन तर्पयथो ये घृतेन याभ्यामृते न किं चन शक्नुवन्ति।
द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः॥६॥
हे द्यावा-पृथिवि ! जो आप अन्न और जल द्वारा समस्त विश्व का पालन करती हैं। आपके बिना मनुष्य कोई भी कार्य करने में सक्षम नहीं है, ऐसे आप हमारे लिए सुखदायी हों और हमें समस्त पापों से मुक्त करें॥६॥
८०१. यन्मेदमभिशोचति येनयेन वा कृतं पौरुषेयान दैवात्।
स्तौमि द्यावापृथिवी नाथितो जोहवीमि ते नो मुञ्चतमंहसः॥७॥
जिस किसी कारण से मनुष्यकृत अथवा देवकृत कर्म हमें झुलसा रहा है और जिन-जिन कारणों से हमने दूसरे पाप किए हैं, उन सभी के निवारण के लिए हम द्यावा-पृथिवी की प्रार्थना करते हैं और उन्हें पुकारते हैं। वे हमें समस्त पापों से मुक्त करें ॥७॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य