अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:30 – राष्ट्रदेवी सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[३० – राष्ट्रदेवी सूक्त]
[ ऋषि – अथर्वा। देवता – सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्। छन्द – त्रिष्टुप्, ६ जगती।]
८२३. अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा॥१॥
(वाग्देवी का कथन) मैं रुद्रगण एवं वसुगणों के साथ भ्रमण करती हूँ। मैं ही आदित्यगणों और समस्त देवों के साथ रहती हूँ। मित्रावरुण, इन्द्र, अग्नि तथा दोनों अश्विनीकुमार सभी को मैं ही धारण करती हूँ॥१॥
८२४. अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तः॥२॥
मैं वाग्देवी जगदीश्वरी और धन प्रदात्री हूँ। मैं ज्ञानवती एवं यज्ञोपयोगी देवों (वस्तुओं) में सर्वोत्तम हूँ। मेरा स्वरूप विभिन्न रूपों में विद्यमान है तथा मेरा आश्रय स्थान विस्तृत है। सभी देव विभिन्न प्रकार से मेरा ही प्रतिपादन करते हैं॥३॥
८२५. अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवानामुत मानुषाणाम्।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषि तं सुमेधाम्॥३॥
देवगण और मनुष्यगण श्रद्धापूर्वक जिसका मनन करते हैं, वे सभी विचार सन्देश मेरे द्वारा ही प्रसारित किये जाते हैं। जिसके ऊपर मेरी कृपा-दृष्टि होती है, वे बलशाली, स्तोता, ऋषि तथा श्रेष्ठ- बुद्धिमान होते हैं॥३॥
८२६. मया सोऽन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणति य ईं शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धेयं ते वदामि॥४॥
प्राणियों में जो जीवनीशक्ति (प्राण) है, दर्शन क्षमता है, ज्ञान-श्रवण सामर्थ्य है, अन्न – भोग करने को सामर्थ्य है, वह सभी मुझ वाग्देवी के सहयोग से ही प्राप्त होती है। जो मेरी सामर्थ्य को नहीं जानते, वे विनष्ट हो जाते हैं। हे बुद्धिमान् मित्रो ! आप ध्यान दें, जो भी मेरे द्वारा कहा जा रहा है, वह श्रद्धा का विषय है॥४॥
८२७. अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥५॥
जिस समय रुद्रदेव ब्रह्मद्रोही शत्रुओं का विध्वंस करने के लिए सचेष्ट होते हैं, उस समय दुष्टों को पीड़ित करने वाले रुद्र के धनुष – बाण का सन्धान में ही करती हूँ। मनुष्यों के हित के लिए मैं ही संग्राम करती हूँ। मैं ही द्युलोक और पृथ्वीलोक दोनों को संव्याप्त करती हूँ॥५॥
८२८. अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या३ यजमानाय सुन्वते॥६॥
सोम, त्वष्टा, पषा और भग सभी देव मेरा ही आश्रय ग्रहण करते हैं। मेरे द्वारा ही, हविष्यान्नादि उत्तम हवियों से देवों को परितृप्त किया जाता है और सोमरस के अभिषवणकर्त्ता यजमानों को यज्ञ का अभीष्ट फलरूप धन प्रदान किया जाता है॥६॥
८२९. अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्त: समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानि विश्वोतामू द्यां वर्ष्घणोप स्पृशामि॥७॥
जगत् के सर्वोच्च स्थान पर स्थित दिव्यलोक को मैने ही प्रकट किया है। मेरा उत्पत्ति स्थल विराट् आकाश में अप (मूल सृष्टि तत्त्व) में है, उसी स्थान से सम्पूर्ण विश्व को संव्याप्त करती हूँ। महान् अन्तरिक्ष को मैं अपनी उन्नत देह से स्पर्श करती हूँ॥७॥
८३०. अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव॥८॥
समस्त लोकों को विनिर्मित करती हुई मैं वायु के समान सभी भुवनों में संचरित होती हूँ। मेरी महिमा स्वर्गलोक और पृथ्वी से भी महान् है॥८॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य