अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:31 – सेनानिरीक्षण सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[३१- सेनानिरीक्षण सूक्त ]
[ ऋषि – ब्रह्मास्कन्द। देवता – मन्यु। छन्द – त्रिष्टुप्, २,४ भुरिक् त्रिष्टुप्, ५-७ जगती।]
८३१. त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणा हृषितासो मरुत्वन्।
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना उप प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः॥१॥
हे मन्यो! आपके सहयोग से रथारूढ़ तथा प्रसन्नचित्त होकर अपने आयुधों को तीक्ष्ण करके, अग्नि के सदृश तीक्ष्ण दाह उत्पन्न करने वाले मरुद्गण आदि युद्धनायक हमारी सहायतार्थ युद्ध क्षेत्र में गमन करें॥१॥
८३२. अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि।
हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओज़ो मिमानो वि मृधो नुदस्व॥२॥
हे मन्यो ! आप अग्नि सदृश प्रदीप्त होकर शत्रुओं को पराभूत करें। हे सहनशक्तियुक्त मन्यो! आपका आवाहन किया गया है। आप हमारे संग्राम में नायक बनें। शत्रुओं का संहार करके उनकी सम्पदा हमें दें। हमें बल प्रदान करके हमारे शत्रुओं को दूर भगाएँ॥२॥
८३३. सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मै रुजन् मृणन् प्रमृणन् प्रेहि शत्रून्।
उग्रं ते पाजो नन्वा ररुध्रे वशी वशं नयासा एकज त्वम्॥३॥
हे मन्यो ! हमारे विरुद्ध सक्रिय शत्रुओं को आप पराभूत करें। आप शत्रुओं को तोड़ते हुए और कुचलते हुए उन पर आक्रमण करें। आपकी प्रभावपूर्ण क्षमताओं को रोकने में कौन सक्षम हो सकता है? हे अद्वितीय मन्यो! आप स्वयं संयमशील होकर शत्रुओं को नियन्त्रण में करते हैं॥३॥
[क्रोधी स्वयं अस्थिर हो जाता है। मन्युशील व्यक्ति स्वयं संतुलित मनः स्थिति में रहते हुए दुष्टता का प्रतिकार करता है।]
८३४. एको बहूनामसि मन्य ईडिता विशंविशं युद्धाय सं शिशाधि।
अकृत्तरुक्त्वया युजा वयं द्युमन्तं घोषं विजयाय कृण्मसि॥४॥
हे मन्यो !आप अकेले ही अनेकों द्वारा सत्कार योग्य है। आप युद्ध के निमित्त मनुष्य को तीक्ष्ण बनाएँ। हे अक्षय प्रकाशयुक्त !आपकी मित्रता के सहयोग से हम हर्षित होकर विजय-प्राप्ति के लिए सिंहनाद करते हैं॥४॥
८३५. विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवो३स्माकं मन्यो अधिपा भवेह।
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्या तमुत्सं यत आबभूथ॥५॥
हे मन्यो! इन्द्र के सदृश विजेता, असन्तुलित न बोलने वाले आप हमारे अधिपति हों। हे सहिष्णु मन्यो ! आपके निमित्त हम प्रिय स्तोत्र का उच्चारण करते हैं। हम उस स्रोत के ज्ञाता है, जिससे आप प्रकट होते हैं॥५॥
८३६. आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्षि सहभूत उत्तरम्।
क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूत संसृजि॥६॥
हे वज्र सदृश शत्रुसंहारक मन्यो! शत्रुओं को विनष्ट करना आपके सहज स्वभाव में है। हे रिपु पराभवकर्ता मन्यो! आप श्रेष्ठ तेजस्विता को ग्रहण करते हैं। कर्मशक्ति के साथ युद्ध क्षेत्र में आप हमारे लिए सहायक हों। आपका आवाहन असंख्य वीरों द्वारा किया जाता है॥६॥
८३७. संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं धत्तां वरुणश्च मन्युः।
भियो दधाना हृदयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम्॥७॥
हे वरुण और मन्यो (अथवा वरणीय मन्यो)! आप उत्पादित और संग्रहीत ऐश्वर्य हमें प्रदान करें। भयभीत हृदय वाले शत्रु हमसे पराभूत होकर दूर चले जाएँ ॥७॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य