अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:32 – सेनासंयोजन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[३२ – सेनासंयोजन सूक्त]
[ ऋषि – ब्रह्मास्कन्द। देवता – मन्यु। छन्द – २-७ त्रिष्टुप्, १ जगती।]
८३८. यस्ते मन्योऽविधद् वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक्।
साह्याम दासमार्य त्वया युजा वयं सहस्कृतेन सहसा सहस्वता॥१॥
हे वज्रवत् तीक्ष्ण बाणतुल्य और क्रोधाभिमानी देव मन्यो ! जो साधक आपको ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार की शक्ति और सामर्थ्य को निरन्तर परिपुष्ट करते हैं। बलवर्द्धक और विजयदाता आपके सहयोग से हम (विरोधी) दासों और आर्यों को अपने आधिपत्य में करते हैं॥१॥
८३९. मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः।
मन्युर्विश ईडते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषाः॥२॥
मन्यु ही इन्द्रदेव हैं, यज्ञ संचालक वरुण और जातवेदा अग्नि हैं। (यह सभी देवता मन्युयुक्त है) सम्पूर्ण मानवी प्रजाएँ मन्यु की प्रशंसा करती हैं। हे मन्यो ! स्नेहयुक्त होकर आप तप से हमारा संरक्षण करें॥२॥
८४०. अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान् तपसा युजा वि जहि शत्रून्।
अमित्रहा वृत्रहा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः॥३॥
हे मन्यो! आप महान् सामर्थ्यशाली हैं, आप यहाँ पधारें। अपनी तप: सामर्थ्य से युक्त होकर शत्रुओं का विध्वंस करें ।आप शत्रुविनाशक, वृत्रहन्ता और दस्युओं के दलनकर्ता हैं। हमें सभी प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करें॥३॥
८४१. त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजा: स्वयंभूर्भामो अभिमातिषाहः।
विश्वचर्षणिः सहुरिः सहीयानस्मास्वोजः पृतनासु धेहि॥४॥
हे मन्यो! आप विजयी शक्ति से सम्पन्न, स्वसामर्थ्य से बढ़ने वाले, तेजोयुक्त, शत्रुओं के पराभवकर्ता, सबके निरीक्षण में सक्षम तथा बलशाली हैं। संग्राम-क्षेत्र में आप हमारे अन्दर ओज की स्थापना करें॥४॥
८४२. अभाग: सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्य प्रचेतः।
तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीडाहं स्वा तनूर्बलदावा न एहि॥५॥
हे श्रेठ ज्ञान सम्पन्न मन्यो ! आपके साथ भागीदार न हो पाने के कारण हम विलग होकर दूर चले गए हैं। महिमामय आपसे विमुख होकर हम कर्महीन हो गए हैं, संकल्पहीन होकर (लज्जित स्थिति में) आपके पास आए हैं। हमारे शरीरों में बल का संचार करते हुए आप पधारें॥५॥
८४३. अयं ते अस्म्युप न एह्याङ्प्रतीचीनः सहुरे विश्वदावन्।
मन्यो वज्रिन्नभि न आ ववृत्स्व हनाव दस्यूंरुत बोध्यापेः॥६॥
हे मन्यो! हम आपके समीप उपस्थित हैं। आप कृपापूर्वक हमारे आघातों को सहने तथा सबको धारण करने में समर्थ हैं। हे वज्रधारी !आप हमारे पास आएँ, हमें मित्र समझें, ताकि हम दुष्टों को मार सकें॥६॥
८४४. अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा नोऽधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि।
जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभावुपांशु प्रथमा पिबाव॥७॥
हे मन्यो! आप हमारे समीप आएँ। हमारे दाहिने (हमारे अनुकूल) होकर रहें। हम दोनों मिलकर शत्रुओं का संहार करने में समर्थ होंगे। हम आपके लिए मधुर और श्रेष्ठ धारक (सोम) का हवन करते हैं। हम दोनों एकान्त में सर्वप्रथम इस रस का पान करें ॥७॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य