अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:36 – सत्यौजा अग्नि सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[३६- सत्यौजा अग्नि सूक्त]
[ ऋषि – चातन। देवता – सत्यौजा अग्नि। छन्द – अनुष्टुप्, ९ भुरिक अनुष्टुप्।]
८६८. तान्त्सत्यौजा: प्र दहत्वग्निर्वैश्वानरो वृषा।
यो नो दुरस्याद् दिप्साच्चाथो यो नो अरातियात्॥१॥
जो शत्रु हम पर झूठा दोषारोपण करते हैं । जो हमें मारने की इच्छा करते हैं तथा जो हमसे शत्रुता का व्यवहार करते हैं, उन रिपुओं को सत्य बल वाले वैश्वानर अग्निदेव प्रबलता से भस्मसात् करें॥१॥
८६९. यो नो दिप्सददिप्सतो दिप्सतो यश्च दिप्सति।
वैश्वानरस्य दंष्ट्रयोरग्नेरपि दधामि तम्॥२॥
जो शत्रु हम निरपराधों को मारना चाहते हैं, जो केवल सताने की इच्छा से हमें मारना चाहते हैं, उन रिपुओं को हम वैश्वानर अग्निदेव के दोनों दाढ़ों में डालते हैं॥२॥
८७०. य आगरे मृगयन्ते प्रतिक्रोशे ऽमावास्ये।
क्रव्यादो अन्यान् दिप्सतः सर्वांस्तान्त्सहसा सहे॥३॥
जो घरों में अमावास्या की अँधेरी रात में भी (अपने शिकार को) खोजते-फिरते हैं, ऐसे परमांसभोजी और घातक पिशाचों (कृमियों) को हम मंत्र बल से पराभूत करते हैं ॥३॥
८७१. सहे पिशाचान्त्सहसैषां द्रविणं ददे।
सर्वान् दुरस्यतो हन्मि सं म आकूतिर्ऋध्यताम्॥४॥
रक्त पीने वाले पिशाचों को मंत्र बल द्वारा हम पराभूत करते हैं और उनके वैभव का हरण करते हैं। दुष्टता का बर्ताव करने वालों को हम नष्ट करते हैं। हमारा वांछित संकल्प हर्षदायक तथा सफल हो॥४॥
८७२. ये देवास्तेन हासन्ते सूर्येण मिमते जवम्।
नदीषु पर्वतेषु ये सं तैः पशुभिर्विदे॥५॥
जो देवता या दिव्य पुरुष सूर्य की गति का माप कर सकते हैं और उन (पिशाचों) के साथ विनोद कर सकते हैं, उनके तथा नदियों एवं पर्वतों पर रहने वाले पशुओं के माध्यम से हम उन्हें भली प्रकार जानें ॥५॥
[विज्ञानवेत्ता देवपुरुष उन विषाणुओं के साथ तरह-तरह के प्रयोग करते हैं। वे उनसे भयभीत नहीं होते, उन्हें एक खेल की तरह लेते हैं। ऐसे पुरुषों तथा उन कृमियों से अप्रभावित रहने वाले पशुओं के माध्यम से उनका अध्ययन करना उचित है।]
८७३. तपनो अस्मि पिशाचानां व्याघ्रो गोमतामिव।
श्वानः सिंहमिव दृष्ट्वा ते न विन्दन्ते न्यञ्चनम्॥६॥
जिस प्रकार गौओं के स्वामी को व्याघ्र पीड़ित करते रहते हैं, उसी प्रकार मंत्र बल द्वारा हम राक्षसों को पीड़ित करने वाले बनें। जिस प्रकार सिंह को देखकर भय के कारण कुत्ते छिप जाते हैं, उसी प्रकार ये पिशाच हमारे मंत्र बल को देखकर पतित हो जाएँ॥६॥
८७४. न पिशाचैः सं शक्नोमि न स्तेनैर्न वनर्गुभिः।
पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति यमहं ग्राममाविशे॥७॥
पिशाच हममें प्रविष्ट नहीं हो सकते। हम चोरों और डाकुओं से नहीं मिलते। जिस गाँव में हम प्रविष्ट होते हैं, उस गाँव के पिशाच विनष्ट हो जाते हैं ॥७॥
८७५. यं ग्राममाविशत इदमुग्रं सहो मम। पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति न पापमुप जानते॥८॥
हमारा यह मंत्र बल जिस गाँव में प्रविष्ट होकर स्थित रहता है, उस गाँव के राक्षस विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए हिंसायुक्त कार्यों को वहाँ के निवासी जानते ही नहीं॥८॥
८७६. ये मा क्रोधयन्ति लपिता हस्तिनं मशका इव।
तानहं मन्ये दुर्हिताञ्जने अल्पशयूनिव॥९॥
जैसे छोटे कीट, जनसमूह के चलने से पिसकर मर जाते हैं, जैसे हाथी के शरीर पर बैठे हुए मच्छर हाथी को क्रोधित करने के कारण मारे जाते हैं, वैसे समस्त राक्षसों को हम मंत्र बल से विनष्ट हुआ ही समझते हैं ॥९॥
८७७. अभि तं निर्ऋतिर्धत्तामश्वमिवाश्वाभिधान्या।
मल्वो यो मह्यं क्रुध्यति स उ पाशान्न मुच्यते॥१०॥
जिस प्रकार अश्व बाँधने वाली रस्सी से अश्वों को बाँधते हैं, उसी प्रकार उस शत्रु को पापदेव निर्ऋति अपने पाशों से बाँधे। जो शत्रु हम पर क्रोधित होते हैं, वे निर्ऋति के पाशों से मुक्त न हों ॥१०॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य