अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:38 – वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्
[३८ – वाजिनीवान् ऋषभ सूक्त]
[ ऋषि – बादरायणि। देवता – १-४ अप्सरा, ५-७ वाजिनीवान् ऋषभ। छन्द – अनुष्टुप, ३ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ५ भुरिक अत्यष्टि. ६ त्रिष्टुप. ७ त्र्यवसाना पञ्चपदा अनुष्टुब्गर्भापुरउपरिष्टात् ज्योतिष्मती जगती।]*
८९०. उद्भिन्दतीं सञ्जयन्तीमप्सरां साधुदेविनीम्।
ग्लहे कृतानि कृण्वानामप्सरां तामिह हुवे॥१॥
उद्भेदन (शत्रु उच्छेदन अथवा ग्रन्थियों का निवारण करने वाली), उत्तम विजय दिलाने वाली, स्पर्धाओं में उतम (विजयी बनाने वाले) कर्मों की अधिष्ठात्री देवी अप्सराओं को हम आहूत करते हैं॥१॥
८९१. विचिन्वतीमाकिरन्तीमप्सरां साधुदेविनीम्।
ग्लहे कृतानि गृह्णानामप्सरां तामिह हुवे॥२॥
चयन करने में कुशल, श्रेष्ठ व्यवहार वाली अप्सरा तथा स्पर्धा में श्रेष्ठ (विजयी बनाने वाले) कर्म कराने वाली स्पर्धा की अधिष्ठात्री देवी का हम आवाहन करते हैं॥२॥
८९२. यायैः परिनृत्यत्याददाना कृतं ग्लहात्। सा नः कृतानि सीषती प्रहामाप्नोतु मायया। सा नः पयस्वत्यैतु मा नो जैषुरिदं धनम्॥३॥
स्पर्धाओं में गतिशील, उत्तम प्रयासों को अंगीकार करने वाली वह (देवी) हमारे द्वारा किये जाने वाले कार्यों को अनुशासित करे। वह अपनी कुशलता से उन्नति प्राप्त करे तथा पयस्वती (पोषण देने वाली) होकर हमारे पास आए। हमारा यह श्रेष्ठ धन (दूसरों द्वारा) जीत न लिया जाए॥३॥
८९३. या अक्षेषु प्रमोदन्ते शुचं क्रोधं च बिभ्रती।
आनन्दिनीं प्रमोदिनीमप्सरां तामिह हुवे॥४॥
जो देवी (स्पर्धा के समय पिछड़ जाने पर होने वाले) शोक एवं क्रोध को भी अपने अक्षों (निर्धारित पक्ष या प्रयास) द्वारा आनन्द प्रदान करती हैं। ऐसी आनन्द और प्रमोद देने वाली अप्सराओं को हम आहूत करते हैं॥४॥
८९४. सूर्यस्य रश्मीननु याः संचरन्ति मरीचीर्वा या अनुसंचरन्ति।
यासामृषभो दूरतो वाजिनीवान्त्सद्यः सर्वांल्लोकान् पर्यैति रक्षन्। स न ऐतु होममिमं जुषाणो३न्तरिक्षेण सह वाजिनीवान्॥५॥
जो देवियाँ आदित्य रश्मियों अथवा प्रभा के विचरने के स्थान में विचरण करती हैं, जिनके सेचन समर्थ पति (सूर्यदेव) समस्त लोकों की सुरक्षा करते हुए, दूर अन्तरिक्ष तथा समस्त दिशाओं में विचरते हैं; वे सूर्यदेव अप्सराओं सहित हमारी हवियों को ग्रहण करते हुए, हमारे समीप पधारें॥५॥
८९५. अन्तरिक्षेण सह वाजिनीवन् ककीँ वत्सामिह रक्ष वाजिन्।
इमे ते स्तोका बहुला एह्याडियं ते कर्कीह ते मनोऽस्तु॥६॥
हे बलवान् (सूर्यदेव) !आप कर्मठ बछड़ों या बच्चों की यहाँ पर सुरक्षा करें। यह आपके अनुग्रह (पर आश्रित) हैं, यह आपकी कर्म शक्ति है,आपका मन यहाँ रमे। आप हमारा नमन स्वीकार करें और हमारे निकट पधारें॥६॥
८९६. अन्तरिक्षेण सह वाजिनीवन् ककीँ वत्सामिह रक्ष वाजिन्।
अयं घासो अयं व्रज इह वत्सां नि बध्नीमः। यथानाम व ईश्महे स्वाहा॥७॥
हे शक्तिवान्! आप कर्मठ बछड़ों की यहाँ पर सुरक्षा करें और उनका पालन करें। यह गोशाला है। यह उनके लिए घास है, यहाँ हम बछड़ों को बाँधते हैं। हमारा जैसा नाम है, उसी के अनुसार हम ऐश्वर्य पाएँ। हम आपके प्रति समर्पित हैं ॥७॥
– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य