अथर्ववेद – Atharvaveda – 4:40 – शत्रुनाशन सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ चतुर्थ काण्डम्

[४० – शत्रुनाशन सूक्त]

[ ऋषि – शुक्र। देवता – ब्रह्म (१ अग्नि, २ यम, ३ वरुण,४ सोम, ५ भूमि,६ वायु,७ सूर्य,८ दिशाएँ। छन्द – त्रिष्टुप, २ जगती, ८ पुरोऽतिशक्वरीपादयुग्जगती।]

९०७. ये पुरस्ताज्जुह्वति जातवेदः प्राच्या दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
अग्निमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥१॥

हे जातवेदा अग्निदव! जो शत्रु पूर्व दिशा में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा हमें विनष्ट करने की कामना करते हैं, वे शत्रु आपके पास जाकर पराङ्मुख होते हुए कष्ट भोगें। आभिचारिक कर्म करने वाले इन रिपुओं को हम इस प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं॥१॥

९०८. ये दक्षिणतो जुह्वति जातवेदो दक्षिणाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
यममृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥२॥

हे जातवेदा अग्निदेव ! जो शत्रु दक्षिण दिशा में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा दक्षिण दिशा से हमें विनष्ट करना चाहते हैं, वे शत्रु यमदेव के समीप जाकर पराङ्मुख होते हुए कष्ट भोगें। उन अभिचारी रिपुओं को हम इस प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं ॥२॥

९०९. ये पश्चाज्जुह्वति जातवेदः प्रतीच्या दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
वरुणमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥३॥

हे जातवेदा अग्ने! जो शत्रु पश्चिम दिशा में आहुति देकर पश्चिम दिशा से हमें विनष्ट करने की कामना करते है, वे शत्रु वरुणदेव के समीप जाकर पराभूत होते हुए कष्ट भोगें। उन अभिचारी रिपुओं को हम इस प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं॥३॥

९१०. य उत्तरतो जुह्वति जातवेद उदीच्या दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
सोममृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥४॥

हे जातवेदा अग्ने! जो शत्रु उत्तर दिशा में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा उत्तर दिशा से हमें विनष्ट करने की कामना करते हैं, वे शत्रु सोमदेव के समीप जाकर पराभूत होते हए कष्ट भोगें। उन अभिचारी रिपुओं को हम इस प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं॥४॥

९११. ये३ऽधस्ताज्जुह्वति जातवेदो ध्रुवाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
भूमिमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान प्रतिसरेण हन्मि॥५॥

हे जातवेदा अग्ने! जो शत्रु नीचे की ध्रुव दिशा में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा नीचे की ध्रुव दिशा से हमें विनष्ट करने की कामना करते हैं, वे शत्रु भूमि के समीप जाकर पराभूत होते हुए कष्ट भोगें। उन अभिचारी रिपुओं को हम इस प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं ॥५॥

९१२. ये३ऽन्तरिक्षाज्जुह्वति जातवेदो व्यध्वाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
वायुमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥६॥

हे जातवेदा अग्ने ! जो शत्रु द्यावा-पृथिवी के बीच अन्तरिक्ष में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा अन्तरिक्ष दिशा से हमें विनष्ट करने की कामना करते हैं, वे शत्रु वायुदेव के समीप जाकर पराभूत होते हुए कष्ट भोगें। उन रिपुओं को हम इस प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं॥६॥

९१३. य उपरिष्टाज्जुह्वति जातवेद ऊर्ध्वाया दिशोऽभिदासन्त्यस्मान्।
सूर्यमृत्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥७॥

हे जातवेदा अग्ने ! जो शत्रु ऊपर की दिशा में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा ऊर्ध्व दिशा से हमें विनष्ट करने की कामना करते हैं, वे शत्रु सूर्यदेव के समीप जाकर पराभूत होते हुए कष्ट भोगें। उन रिपुओं को हम प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं ॥७॥

९१४. ये दिशामन्तर्देशेभ्यो जुह्वति जातवेदः सर्वाभ्यो दिग्भ्योऽभिदासन्त्यस्मान्।
ब्रह्मर्त्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान् प्रतिसरेण हन्मि॥८॥

हे जातवेदा अग्ने! जो शत्रु उप दिशाओं में आहुति देकर अभिचार कर्म द्वारा दिक्कोणों से हमें विनष्ट करने की कामना करते हैं, वे शत्रु परब्रह्म के समीप जाकर पराभूत होते हए कष्ट भोगें। उन रिपुओं को हम प्रतिसर कर्म द्वारा विनष्ट करते हैं ॥८॥

॥इति चतुर्थं काण्डं समाप्तम्॥

– वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

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