भामती – वाचस्पति मिश्र – संक्षिप्त परिचय

भारतीय दर्शन में सर्वतन्त्रस्वतन्त्र के नाम से विभूषित आचार्य वाचस्पति मिश्र जी ने सांख्य, योग, न्याय, मीमांसा, वेदान्त – आदि सभी वैदिक दर्शनों के संप्रदायों को अपनी लेखनी से समृद्ध किया है।

अद्वैत वेदान्त में भगवद्पादाचार्य शङ्कर के शारीरक भाष्य पर उनकी भामती व्याख्या अन्यतम स्थानाभिषिक्त अन्वर्थनाम्नी विवृत्ति है।

प्राचीन व मध्यकालीन मिथिला जनपद की पवित्र भूमि ने कई अमूल्य रत्न दिए हैं भारतवर्ष को। मध्यकाल में ही इस पावन धरा पर वाचस्पति नाम के कई वेदार्थवेत्ता, शास्त्र विशेषज्ञ , मनीषी का जन्म हुआ है, जिनमे से तीन अतिप्रसिद्ध हैं

1) सर्वतन्त्रस्वतन्त्र षड्दर्शन-टीकाकार आचार्य भामतीकार वाचस्पति मिश्र

2) खण्डनोद्धार ग्रन्थ के रचयिता वाचस्पति मिश्र, (इन्होंने अपने इस ग्रन्थ की रचना श्रीहर्ष कृत ‘खण्डनखण्डखाद्यम्’ का खण्डन व द्वैतमत के समर्थन करने के लिए की थी।), और

3) धर्मशास्त्रों के प्रसिद्ध व्याख्याता वाचस्पति मिश्र (इन्होंने आचार चिंतामणि, आह्निक चिंतामणि, कृत चिंतामणि, तीर्थ चिंतामणि, व्यवहार, शुद्धि, महादान, तिथि निर्णय, श्राद्ध चिंतामणि आदि ग्रंथों की रचना की है। इनका समय करीब 1450 ई. से 1480 ई. के मध्य का माना जाता है।

इनके गुरु त्रिलोचनाचार्य जी माने जाते हैं और वह सम्भवतः सुरेश्वराचार्य जी (आचार्य शङ्कर के प्रत्यक्ष शिष्य) के सम्प्रदाय से थे । आचार्य वाचस्पति मिश्र जी के लेखन की भाषा शैली अत्यंत संयत, मनोरम, लालित्य और अर्थ व भाव गाम्भीर्यपूर्ण है। इनकी भाषा शैली पर भगवद्पादाचार्य शङ्कर, सुरेश्वराचार्य जी, महर्षि पतञ्जलि का विशेष प्रभाव दिखता है।

भामती के अंत मे ही आचार्य वाचस्पति मिश्र जी ने अपनी अन्य कृतियों का उल्लेख किया है।

यन्न्यायकणिकातत्वसमीक्षातत्वबिन्दुभि: ।
यन्न्यायसांख्ययोगानां वेदान्तानां निबन्धनै: ।।

1) न्यायकणिका (मीमांसा)

आचार्य मण्डन मिश्र जी ने विधिविवेक नामक ग्रन्थ की रचना विधि के स्वरूप का निर्णय करने के लिए की थी, जैसाकि उन्होंने स्वयम् लिखा है

साधने पुरुषार्थस्य संगिरन्ते त्रयीविदः।
बोधं विधौ समायत्तमतः स प्रविविच्यते ।।

इसी ग्रंथ पर आचार्य वाचस्पति मिश्र जी ने न्यायकणिका नामक व्याख्या की रचना की है। पूर्व मीमांसा पर सर्वप्रथम लेखनी उठाने का भी एक विशेष तात्पर्य है कि कोई ऐसा भारतीय दर्शन नही जिसमे मीमांसा का अवलंबन न लिया गया हो। कुमारिल भट्टाचार्य जी ने भी लिखा है कि, – “मीमांसाख्यां तु विद्येयं बहुविद्यान्तराश्रिता।”

2) ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा

यह रचना आचार्य मण्डन मिश्र जी की ब्रह्मसिद्धि पर एक सफल टीका है। दुर्भाग्य से यह टीका उपलब्ध नही है।

3) तत्वबिन्दु

आचार्य मण्डन मिश्र जी की रचनाओं के अनुक्रम का सम्भवत: अनुगमन करते हुए , उनकी तीसरी रचना ‘स्फोट-सिद्धि’ पर मिश्र जी व्याख्या लिखना चाहते थे। किन्तु स्फोट सिद्धि में प्रतिपादित सिद्धांतो से वैमत्य होने के कारण स्फोट सिद्धान्त का निराकरण करने हेतु आचार्य कुमारिल भट्ट के मत को अपनाकर शाब्दबोध प्रक्रिया पर प्रकाश डालने के लिए तत्वबिन्दु की रचना की।

इस ग्रंथ का पूरा नाम शब्दतत्वबिन्दु परंपरा से प्रचलित है। अर्थात, शब्दमहोदधि के एक अंश, एक बिन्दु, इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है।

4) न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका (न्याय)

महर्षि अक्षपाद गौतम प्रणीत न्याय सूत्रों पर पक्षिल स्वामी का एक संक्षिप्त भाष्य है। उस भाष्य पर बृहत्काय व्याख्या ‘वार्तिक’ उद्योतकर भारद्वाज ने लिखी थी। इसका महत्व दार्शनिकों में इतना प्रसिद्ध हुआ कि उद्योतकर-सम्प्रदाय ही प्रसिद्ध हो गया।

शान्तरक्षित जैसे गंभीर और विद्वान बौद्ध नैयायिकों ने उद्योतकर की आलोचना करते हुए उनके प्रत्येक सिद्धान्त का खण्डन अपने ग्रंथ ‘तत्वसंग्रह’ में किया है।

आचार्य वाचस्पतिमिश्र जी ने इसी तत्वसंग्रह के सभी खण्डन का प्रचण्ड उत्तर देने के लिए वार्तिक पर विशाल “न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका” की रचना की। इसी के नाम पर सम्पूर्ण न्याय दर्शन जगत आचार्य वाचस्पतिमिश्र को टीकाकार या तात्पर्याचार्य के नाम से भी जानता है।

आचार्य लिखते हैं कि बौद्ध न्याय के साथ भयंकर संघर्ष करना इस टीका का प्रधान लक्ष्य था। सूत्रों से लेकर पूर्ण व्याख्यासंपत्तिपर्यन्त न्याय दर्शन किसी विशाल अखाड़े से कम नही है जिसमे दिंगनाग, धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित, कमलशील, ज्ञानश्री, रत्नकीर्ति जैसे वादि के साथ पूरे दांव पेंच के साथ वैदिक नैयायिकों ने कई सौ वर्षों तक मल्लयुद्ध किया है। उनमें उद्योतकर और वाचस्पति मिश्र जी ने नाम उल्लेखनीय व मौलिक महत्व का है।

इस टीका का महत्व और गाम्भीर्य इसी बात से परिलक्षित होता है कि महान नैयायिक उदयनाचार्य जी ने इस पर “तात्पर्य परिशुद्धि” नाम की व्याख्या लिखी है और आरम्भ करने से पहले स्खलन से बचने के लिए वे सरस्वती माता से प्रार्थना करते हैं –

मातः सरस्वती ! पुनः पुनरेष नत्वा,
बद्धाजंलि: किमपि विज्ञपयाम्यवेहि।
वाक्यचेतसोमर्म तथा भव सावधाना,
वाचस्पते वर्चसि न स्खलतो यथैते।।

(उदयनाचार्य – न्याय वार्तिक तात्पर्य टीका परिशुद्धि)

हे सरस्वती माँ ! मैं बार बार सांजलि प्रार्थना करता हूँ कि तू सजग-सावधान हो जा- वाचस्पति के लेख की व्याख्या करते समय मैं कहीं फिसल न जाऊं। वाचस्पति के भावगर्भित सुंदर पद कदम्ब और उनका अर्थ गाम्भीर्य मेरी पहुँच के परे न रह जाय।

5) न्यायसूचीनिबन्ध (न्याय)

न्यायसूत्रों का प्राकरणिक गुम्फन इस स्वल्पकाय ग्रंथ में किया गया है।

6) सांख्यतत्वकौमुदी (सांख्य)

यह ग्रंथ ईश्वरकृष्ण जी की सांख्यकारिकाओं पर महत्वपूर्ण व संक्षिप्त व्याख्या है।

7) तत्ववैशारदी (योग)

यह योग भाष्य के गंभीर भावों , योग में गंभीर प्रमेय, और दार्शनिक पक्ष पर विशेष प्रभाव डालने वाला ग्रंथ है।

8) भामती (वेदान्त)

ब्रह्मसूत्रों के शाङ्कर भाष्य पर वाचस्पतिमिश्र जी की भामती टीका अपना विशेष स्थान रखती है।

इस ग्रंथ के नाम के पीछे कई किंवदन्तियाँ हैं, जिनमे से सबसे प्रसिद्ध है, उनकी स्वाध्याय साधना के प्रति उनका अत्यंत गहन भाव व व्यवहारिक जगत के प्रति ध्यान कम हो जाना, तथा इस ग्रंथ रचना में इनकी पत्नी का अद्भुत सह्योग मिलना है। जिसमे कारण इसका नाम भामती इन्होंने रखा। इस कथा के आधार पर कई लेखक ने उपन्यास की भी रचना की है।

हालांकि यह कथा बहुत सुंदर है, और अत्यंत प्रेररणादायी भी है किंतु वाचस्पति मिश्र जी के चरित्र पर मुझे सटीक नही लगती।

एक और कथानक है कि आचार्य शङ्कर के शिष्य परम्परा में से किन्ही ने शाङ्कर भाष्य पर टीका लिखने के लिए आग्रह किया था और उनकी विदुषी पत्नी का इनमें बहुत सहयोग मिला इसलिए उन्होंने इसका नाम भामती रखा।

कुछ का कहना है कि इनकी सुपूत्री का नाम भामती था, कहीं कहीं पर यह मिलता है कि इनके गांव का नाम भामह था इसके आधार पर यह नामकरण हुआ।

खैर, वस्तुत: नामकरण का आधार कुछ भी रहा हो, मूल तत्व इसका वेदान्त है जो कि चर्चा का विषय होना चाहिए।

यह ग्रंथ वाचस्पति मिश्र जी की अंतिम रचना है। इसमे उनके परिपक्व दार्शनिक मनीषा के दर्शन होते हैं। यह टीका न केवल शाङ्करभाष्य के रहस्य का समुद्घाटन करती है अपितु कई विरोधी मतों को ध्वस्त करने हेतु एवं स्वसिद्धान्त स्थापनार्थ स्वतंत्र मनीषा का परिचय भी देती है।

भामती का वेदान्त में अपना स्वतंत्र स्थान है। इसकी रचना के समय आचार्य के सामने चार उद्देश्य थे,

1) शाङ्कर भाष्य की विवृत्ति
2) विरोधी मतों का खण्डन व वैदिक मार्ग की रक्षा
3) श्रुति सागर के मंथन से ब्रह्मामृत का उद्घाटन
4) आचार्य शङ्कर और सुरेश्वराचार्य जी के दो भिन्न मतों का इस टीका के माध्यम से एक मंच पर प्रस्तुतिकरण

आचार्य वाचस्पति ने जब वेदान्त पर रचना के लिए लेखनी उठाई थी उस समय वेदान्त पर न केवल बौद्ध व बाह्य, अपितु अपने सहोदर वैदिक दर्शन के तरफ से आघात प्रत्याघात हो रहे थे। इतना ही नही वेदान्त वाले ही कुछ आचार्यगण ही स्वयम् भगवद्पादाचार्य शङ्कर पर ही प्रच्छन्न बौद्धता का आक्षेप लगाने लगे थे, –
“मायावादमसच्छास्त्ररं प्रच्छन्नम् बौद्धमेव च’। (भास्कराचार्य, शारीरक भाष्य 2:2:29)

इस समय अद्वैत वेदान्त के प्रांगण में ही दो विचारधारा का प्रवाह देखने को मिलने लगा, जिसमे एक आचार्य शङ्कर और दूसरे सुरेश्वराचार्य जी। अद्वैत शिविर में इस गृहयुद्ध को भी सामंजस्य में लाना था जिसपर समसामयिक काल मे किसी भी आचार्य ने लेखनी उठाने का साहस नही किया। ऐसे संक्रमण काल में भामतीकार ने यह महत्वपूर्ण कार्य किया।

विषय अत्यंत गंभीर है परन्तु भामती व आचार्य वाचस्पति मिश्र जी के संक्षिप्त परिचय के लिए इतना पर्याप्त है।

साभार

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