
वेद की अतुलनीय महिमा
वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। भारतीय धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता का भव्य प्रासाद जिस दृढ आधारशिला पर प्रतिष्ठित है, उसे वेद के नाम से जाना जाता है। भारतीय आचार-विचार, रहन-सहन तथा धर्म-कर्म को भली-भाँति समझने के लिए वेदों का ज्ञान बहुत आवश्यक है। सम्पूर्ण धर्म-कर्म का मूल तथा यथार्थ कर्त्तव्य-धर्म की जिज्ञासा वाले लोगों के लिए ‘वेद’ सर्वश्रेष्ठ प्रमाण हैं। ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’, ‘धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः‘ (मनु० २.६, १३) जैसे शास्त्रवचन इसी रहस्य का उद्घाटन करते हैं। वस्तुत: ‘वेद’ शाश्वत-यथार्थ ज्ञान राशि के समुच्चय हैं, जिसे साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने अपने प्रातिभ चक्षु से देखा है- अनुभव किया है।
ऋषियों ने अपने मन या बुद्धि से कोई कल्पना न करके एक शाश्वत अपौरुषेय सत्य की, अपनी चेतना के उच्चतम स्तर पर अनुभूति की और उसे मंत्रों का रूप दिया। वे चेतना क्षेत्र की रहस्यमयी गुत्थियों को अपनी आत्मसत्ता रूपी प्रयोगशाला में सुलझाकर सत्य का अनुशीलन करके उसे शक्तिशाली काव्य के रूप में अभिव्यक्त करते रहे हैं। वेद स्वयं इनके बारे में कहता है- “सत्यश्रुत: कवयः” (ऋ० ५.५७.८) अर्थात् “दिव्य शाश्वत सत्य का श्रवण करने वाले द्रष्टा महापुरुष।”
इसी आधार पर वेदों को ‘श्रुति’ कहकर पुकारा गया। यदि श्रुति का भावात्मक अर्थ लिया जाय, तो वह है स्वयं साक्षात्कार किये गये ज्ञान का भाण्डागार । इस तरह समस्त धर्मों के मूल के रूप में माने जाने वाले, देवसंस्कृति के रत्न-वेद हमारे समक्ष ज्ञान के एक पवित्र कोष के रूप में आते है। ईश्वरीय प्रेरणा से अन्त:स्फुरणा(इलहाम) के रूप में “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की भावना से सराबोर ऋषियों द्वारा उनका अवतरण सृष्टि के आदिकाल में हुआ।
वेदों की ऋचाओं में निहित ज्ञान अनन्त है तथा उनकी शिक्षाओं में मानव-मात्र ही नहीं, वरन् समस्त सृष्टि के जीवधारियों घटकों के कल्याण एवं सुख की भावना निहित है । उसी का वे उपदेश करते हैं। इस प्रकार वे किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष को दृष्टिगत रख अपनी बात नहीं कहते। उनकी शिक्षा में छिपे मूल तत्त्व अपरिवर्तनीय है, हर काल-समय-परिस्थिति में वे लागू होते हैं तथा आज की परिस्थितियों में भी पूर्णत: व्यावहारिक एवं विशुद्ध विज्ञान सम्मत है।
भारतीय परम्परा ‘वेद’ के सर्व ज्ञानमय होने की घोषणा करती है – ‘भूतं भव्यं भविष्यञ्च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति। (मनु०१२.९७) अर्थात् भूत, वर्तमान और भविष्यत् सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान का आधार वेद है। आचार्य सायण ने कृष्ण यजुर्वेद की तैत्ति० सं० के उपोद्घात में स्वयमेव लिखा है –
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।।
आचार्य सायण – कृष्ण यजुर्वेद की तैत्ति० सं०, उपोद्घात
अर्थात्-प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण से जिस तत्व (विषय) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो रहा हो,उसका ज्ञान भी वेदों के द्वारा हो जाता है। यही वेदों का वेदत्व है।
द्रष्टाओं का मत है कि वेद श्रेष्ठतम ज्ञान-पराचेतना के गर्भ में सदैव से स्थित रहते हैं। परिष्कृत-चेतना-सम्पन्न ऋषियों के माध्यम से वे प्रत्येक कल्प में प्रकट होते हैं। कल्पान्त में पुन: वहीं समा जाते हैं।
आचार्य शंकर ने अपने ‘शारीरक भाष्य’ में वेदान्त सूत्र – ‘अतएव च नित्यत्वम् की व्याख्या में महाभारत का यह श्लोक उद्धत किया है –
युगान्तेऽन्तर्हितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः।
लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाता: स्वयंभुवा।।
आचार्य शंकर ‘शारीरक भाष्य’
‘युग के अन्तमें वेदों का अन्तर्धान हो जाता है। सृष्टि के आदि में स्वयंभू के द्वारा महर्षि लोगों ने उन्हीं वेदों को इतिहास के साथ अपनी तपस्या के बल पर प्राप्त किया।’
ऐसी भी प्रसिद्धि है कि परमात्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही ‘वेद’ के रूप में अपेक्षित ज्ञान का प्रकाश कर दिया। महाभारत में ही महर्षि वेदव्यास ने इस सत्य का उद्घाटन करते हुए लिखा है- अनादि निधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा । आदौ वेदमयी दिव्या यत: सर्वा: प्रवृत्तय:। अर्थात् – सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयंभू परमात्मा से ऐसी दिव्य वाणी (वेद) का प्रादुर्भाव हआ, जो नित्य है और जिससे संसार की गतिविधियाँ चली। स्थूल बुद्धि से यह अवधारणा अटपटी सी-कल्पित सी लगती है, किन्तु है सत्य । आज के विकसित विज्ञान के सन्दर्भ से उसे समझने का प्रयास करें, तो बात कुछ स्पष्ट हो सकती है।
कम्प्यूटर तंत्र के अन्तर्गत मास्टर कम्प्यूटर के साथ माइक्रोवेव टावर्स (सूक्ष्म तरंग प्रणाली) द्वारा विभिन्न कम्प्यूटर केन्द्र जुड़े रहते हैं। रेलवे टिकिट बुकिंग से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय आँकड़ों के तन्त्रों में आज यह प्रणाली प्रयुक्त है। प्रत्यक्ष में कम्प्यूटरों के पढ़ें पर इच्छित आँकड़े या सूत्र उभरते रहते हैं। यदि कोई कम्प्यूटर केन्द्र बिगड़ जाए अथवा नष्ट हो जाए तो उस पर अंकित आँकड़े नष्ट या लुप्त हो गये से लगते तो हैं, किन्तु वास्तव में वे मास्टर कम्प्यूटर में समा जाते हैं, वहाँ सुरक्षित रहते हैं। कालान्तर में कम्प्यूटर केन्द्र पुन: स्थापित होने पर वे ही सूत्र पुन: पर्दो पर आने लगते हैं।
उक्त विधा के अनुरूप ही पराचेतना में मास्टर कम्प्यूटर की तरह समस्त ज्ञान स्थित है। विभिन्न लोकों और विभिन्न कालों में वहाँ विकसित उच्च-परिष्कृत मानस कम्प्यूटर केन्द्रों की भूमिका निभाते रहते हैं। कभी भूलोक आदि किसी लोक का तंत्र नष्ट या अस्त-व्यस्त हो जाने से वह ज्ञान नष्ट नहीं होता। यह अवधारणा चेतना-विज्ञान का क, ख, ग समझने वालों को भी अटपटी नहीं लगनी चाहिए।
नेति- नेति – वेद की अतुलनीय महिमा
उपनिषद् की यह अवधारणा कि वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है। पूर्ण से ही पूर्ण का उदय-विकास होता है। उस पूर्ण में से यह पूर्ण प्राप्त कर लेने पर भी वह पूर्ण ही रहता है –
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
अस्तु, वेद का वह सनातन भाण्डागार पूर्ण है। उससे प्रकट यह वेद भी पूर्ण हैं, क्योंकि समकालीन सृष्टि तन्त्र का पूर्ण ज्ञान इसमें रहता है। सनातन वेद में से प्रत्यक्ष वेद के प्रकट होने या न होने से उस सनातन की पूर्णता में कोई अन्तर नहीं पड़ता। पदार्थ से उत्पन्न ज्ञान (पाश्चात्य-विज्ञान) पदार्थ के साथ नष्ट हो सकता है, किन्तु चेतना अनश्वर है, इसलिए चेतना से उद्भूत ज्ञान को भी अनश्वर कहा गया है । ऋषियों ने यह ज्ञान समाधि द्वारा परमात्म तत्व से एकाकार होकर पाया था। ऋषियों का ज्ञान ‘साक्षात्कार का ज्ञान’ नॉलेज बाय आयडेन्टिटी (Knowledge by ldentity) है। देख-पढ़कर, बौद्धिकता, तार्किक विश्लेषण द्वारा अथवा बाह्य प्रेरणा द्वारा ऐसा ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। यह हमारी संस्कृति की ही अनादिकालीन परम्परा रही है कि ज्ञान-प्राप्ति हेतु ऋषि-गण आत्मसत्ता की प्रयोगशाला में जाकर अन्तर्मुखी हो मनन, निदिध्यासन तथा फिर समाधि की स्थिति में जाकर चेतना जगत् के सूत्रों को खोज लाते थे। उन ज्ञान सूत्रों का क्रमबद्ध संकलन हमें वेद मंत्रों के रूप में उपलब्ध है।
ऋषियों ने वेद को पूर्ण तो कहा, किन्तु उसी के साथ नेति-नेति (यही-अंतिम नहीं है) भी कहा। ‘पूर्णमिदं’ के साथ नेति-नेति कहना उनके तत्त्व द्रष्टा और स्पष्ट वक्ता होने का प्रमाण है। अंतर्दृष्टि की परिपक्वता के बिना कोई व्यक्ति ऐसी उक्ति कह नहीं सकता । ऋषियों ने लोक एवं काल की आवश्यकता के अनुरूप चेतना के समग्र सूत्र प्रकट कर दिये। इसलिए उन्हें पूर्ण तो कहा, किन्तु वे देख रहे थे कि यह पूर्ण ज्ञान भी इस दिव्य ज्ञान भाण्डागार का एक अंश मात्र है। इसलिए उन्होंने नेति (यही अन्तिम नहीं ) कह दिया।
आवश्यकता के अनुरूप जिस ज्ञान का बोध उन्होंने किया, उसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए उसे भाषा में व्यक्त करना आवश्यक हुआ। अनुभूति को व्यक्त करने में भाषा सामान्य व्यवहार में भी अक्षम सिद्ध होती है, सो वेदानुभूति को व्यक्त करने में तो वह समर्थ हो ही कैसे सकती थी? अस्त, ऋषियों ने स्पष्टता से कह दिया कि जितना कुछ व्यक्त किया जा सका, तथ्य केवल उतना ही नहीं है। उसे पूर्णतया समझने के लिए तो स्वानुभूति की क्षमता ही विकसित करनी होती है।
देवसंस्कृति के मर्मज्ञ ऋषियों ने इसी कारण से वेदाध्ययन करने वालों के लिए दो तत्व अनिवार्य बताए हैं- श्रद्धा एवं साधना। श्रद्धा की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि आलंकारिक भाषा में कहे गए रूपकों के प्रतिमान-शाश्वत सत्यों को पढ़कर बुद्धि भ्रमित न हो जाय । साधना इस कारण आवश्यक है कि श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परिधि से भी ऊपर उठकर मन “अनन्तं निर्विकल्पम्” की विकसित स्थिति में जाकर इन सत्यों का स्वयं साक्षात्कार कर सके। मंत्रों का गुह्यार्थ तभी जाना जा सकता है।
‘वेद’ अध्ययन का अनुशासन और अधिकार
वेद विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान के भाण्डागार हैं। किसी भी विशिष्ट विद्या को प्राप्त करने के लिए उसके विशिष्ट अनुशासनों का पालन करते हुए एक न्यूनतम स्तर तक व्यक्तित्व को ले जाना पड़ता है। उससे कम में हर कोई, किसी मनचाहे ढंग से उसका उपयोग करने अथवा लाभ पाने में समर्थ नहीं हो सकता।
बाँस की पोली नली से अग्नि को फूंक मारकर प्रज्वलित करने का ढंग थोड़े से संकेत से कोई भी सीख सकता है, किन्तु पोले बाँस को बाँसुरी के रूप में विकसित करने तथा उससे संगीत की मधुर ध्वनियाँ निकालने का कार्य संगीत का ज्ञाता ही कर सकता है। बाँसुरी सुरीली बने, इसके लिए छेदों के आकार तथा उनकी परस्पर दूरियों का निर्धारण कितनी सावधानी से करना पड़ता है और उसका कितना महत्त्व है । यह बात कोई कनसुरा (जिसके कान स्वरों का अंतर ही नहीं समझते-ऐसा) व्यक्ति नहीं समझ सकता। इसी प्रकार कद्दू के खोल, प्लाई और तार के संयोग से सितार की और उसके जादू भरे संगीत की बात कोई ऐसा व्यक्ति कैसे समझ सकता है, जो संगीत विद्या से सर्वथा दूर ही रहा हो?
वेद मंत्रों में पराचेतना के गूढ़ अनुशासनों का समावेश है। शब्दार्थ और व्याकरण आदि तो उसके कलेवर मात्र हैं। वे मंत्रों के भाव समझने में सहायक तो होते हैं, किन्तु केवल उन्हीं के सहारे गूढ़ तत्त्वों को समझा जाना संभव नहीं। स्वयं वेद में इस तथ्य को प्रकट किया गया है। जैसे – ऋग्वेद १.१६४.३९ में कहा गया है – “ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन देवा अघि विश्वे निषेदुः” अर्थात् ऋचाएँ परम व्योम में रहती है, जिसका देवत्व अपरिवर्तनीय है। आगे कहा गया है – “यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति” जो उस अपरिवर्तनीय सत्य को नहीं समझता, उसके लिए मात्र ऋचा क्या करेगी? यह कथन उसी तरह सत्य है, जिस प्रकार यह कथन कि ‘जो संगीत का ज्ञाता नहीं, उसके लिए मात्र बाँसुरी क्या करेगी ?’ इसी प्रकार भाषा की सीमा बतलाते हुए ऋ०१०.७१.१ में कहा गया है – बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः । यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः ॥ हे बृहस्पते ! सर्वप्रथम पदार्थों के नाम आदि का भाषा ज्ञान प्राप्त होता है। यह वाणी का प्रथम सोपान है। ज्ञान का जो दोष रहित-श्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप है, वह गुफा में छिपा है,जो दिव्य प्रेरणा से प्रकट होता है।
भाषा ज्ञान वाणी का प्रथम सोपान है। उससे प्रेरित होकर पदार्थों को देखा-पहचाना जा सकता है, किन्तु विचारों और भावनाओं की गहराई (गुफा) तक पहुँचने के लिए तो विशेष अन्त:स्फुरणा आवश्यक होती है। यदि किसी प्रभावशाली राग की सरगम (स्वरलिपि) लिख दी जाये, तो उससे राग को समझने में सहायता तो मिलेगी, किन्तु संगीत-निपुण व्यक्ति के निर्देशन में साधना करके ही उसे पाया जा सकता है।
वेदवाणी के संदर्भ में भी ऋषियों का यही मत है। ज्ञानी लोग श्रेष्ठ वाणी को यज्ञ से ही प्राप्त करते है। उन्होंने तत्वज्ञानी ऋषियों के अन्त:करण में प्रविष्ट वाणी को प्राप्त करके उस ज्ञान को सम्पर्ण विश्व में प्रसारित किया। इसी वाणी (दिव्य ज्ञान) को सात छन्दों में स्तुति रूप में प्रस्तुत किया । वेद वाणी को यज्ञ के माध्यम से पाया गया– यह वाक्य गूढार्थक है।
यज्ञ-यजन का अर्थ है- देवपूजन, संगतिकरण, दान। विद्या के विशेषज्ञ-दाता, देवता का पूजनश्रद्धा युक्त अनुगमन पहली शर्त है। उसके निर्देशानुसार स्वयं साधना – अभ्यास रूप में संगतिकरण करके ही व्यक्ति विद्याविद बनता है। इससे कम में किसी विशेषज्ञ के अन्त:करण में संचित अनुभवजन्य विद्या को प्राप्त करना संभव नहीं है। इतना करके ही कोई व्यक्ति दान रूप में विद्या का विस्तार करके उसे सार्थक बना सकता है।
यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य है- वेद वाणी जड़ नहीं है। वह चेतन का प्रतिनिधित्व करती है और स्वयं भी चेतन है। चेतन में स्वयं भी चयन करने की क्षमता होती है। वह सत्पात्रों को पहचान कर स्वयं अपना प्रभाव उसके सामने खोल देती है। कुछ लोग उस वाणी को सुनने के पश्चात् (अर्थ न समझ पाने के कारण) न सूने के समान ही रह जाते हैं। कुछ धारणा शक्ति के अभाव मे मन से देखने पर भी न देख पाने (अद्रष्टा) जैसे रह जाते है। वह वाणी किसी अधिकारी के पास ही अपने स्वरूप को वैसे ही स्पष्ट करती है, जैसे सन्दर वस्त्रों में लिपटी पत्नी अपने पति के पास ही अपना वास्तविक रूप प्रकट करती है। जो लोग तप द्वारा श्रद्धा एवं मानस के परिष्कार के बिना वेदज्ञान का अनुभव करना चाहते हैं, वे शब्द जंजाल की माया में ही भटककर रह जाते हैं। कोई-कोई स्थिर मति वाला ही वेद वाणी को ठीक से समझ पाता है। अन्य तो पुष्प एवं फल रहित शब्दों की माया में ही भटकते रह जाते हैं।
यही कारण है कि बड़ी संख्या में शौकिया वेद अध्येता मंत्रों के तत्व तक नहीं पहुँच पाते । श्री अरविन्द ने वेद रहस्य में यह बात स्पष्ट करते हुए लिखा है कि उपनिषद काल (जब साधकों के अन्त:
करण पर्याप्त शुद्ध थे) में भी उन्हें तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिये तप करने और दीक्षित होने के लिए कहा जाता था। अब, जब जीवन लगभग पूरी तरह पदार्थोन्मुख हो गया है, तब पराचेतन के सूत्र स्वरूप वेदवाणी की गहराई कैसे समझ में आये? इसका अर्थ यह नहीं कि वेदों में दिये गये सारे मंत्र सामान्य बुद्धि से परे हैं। कहीं-कहीं ऋषिगण व्यावहारिक अध्यात्म के जीवन निर्माण के, मार्मिक सूत्र प्रकट करते हुए कहते हैं – ‘जिह्वाया अग्रे ……भूयास मधुसंदृशः” (अथर्व० १. ३४) अर्थात् “मेरी जिह्वा के अग्र भाग में मधु हो,जिह्वा का मूल मधुर हो, मेरा आचरण और व्यवहार मधुर हो। मैं वाणी से मीठा बोलू और मधुर बन जाऊँ।” इसी प्रकार ऋषिगण लोकशिक्षण का महत्व समझाते हुए कहते हैं – ‘यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्यं तदन्तरम्’ (अथर्व०२.३०.६) अर्थात् “जो तुम बाहर से हो, वही अन्दर से भी बन जाओ, जो अंदर हो, वही बहिरंग में प्रकट हो”। इस प्रकार व्यक्तित्व को कैसे सुव्यवस्थित रखा जाय, यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र भी वे दे देते हैं। इस प्रकार सर्वसुलभ मंत्रों का भाव समझने में भी यदि मधु का अर्थ मात्र शहद लिया जाये, तो जिह्वा के अग्र भाग पर मधु का अर्थ शहद चाटने के संदर्भ में चला जायेगा और आगे का क्रम बकवास जैसा लगेगा। मधु का अर्थ मधुरता ही लेने से बात बनेगी। कथन की काव्यात्मकता को ध्यान में रखकर ही चलना होगा।
उक्त संदर्भो से यह स्पष्ट होता है कि पाश्चात्य विद्वान् वेदार्थ के अनुशीलन में एक सीमा तक ही सफल हो सके। उन्होंने एक ओर जहाँ वेद को प्रकाशित करके उस ओर विज्ञ समाज का ध्यान खींचने का स्तुत्य प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर वे उसके गूढ तत्त्व तक न पहुँच सकने के कारण स्वयं तो भटके ही, अन्य भोले-भाले जिज्ञासुओं के मन में भ्रामक धारणा पैदा कर दी। अपनी बौद्धिक क्षमता के नशे में गूढ़ अर्थों में सायण जैसे आचार्यों की निन्दा करने में भी वे नहीं चूके। जबकि वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं कि “हमारा तो यह निश्चित मत है कि वैदिक सम्प्रदाय के सच्चे ज्ञाता होने के कारण सायण का वेदभाष्य वास्तव में वेदार्थ की कुंजी है और वेद के दुर्गम दुर्ग में प्रवेश कराने के लिए यह विशाल सिंह द्वार है” -(वैदिक साहित्य और संस्कृति पृ० ५३)।
इसी कारण कई भारतीय विद्वान् उन पाश्चात्य विद्वानों पर यह आक्षेप लगाने लगे कि वे वेद के प्रति छद्मरूप से अश्रद्धा उत्पन्न करना चाहते हैं। पाश्चात्य विद्वानों की नीयत क्या थी ? इस झमेले में न पड़े, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि वेदाध्ययन के लिए ऋषियों की दृष्टि का ही अनुगमन करना आवश्यक है।
वेद – अध्ययन की मूल अवधारणा
वेद अध्ययन के संदर्भ में कहा जाता है कि ऋषि, देवता एवं छन्द को जाने बिना मंत्रार्थ खुलते नहीं है। महर्षि कात्यायन प्रणीत सर्वानुक्रमणी (१, १) तथा महर्षि शौनक कृत बृहद्देवता (८.१३२) में स्पष्ट लिखा है कि ऋषि, देवता एवं छन्द समझे बिना वेदार्थ का प्रयास करने वाले का श्रम निरर्थक जाता है अथवा पापमूलक हो जाता है।
यहाँ ऋषि का अभिप्राय है -कहने वाले (यस्य वाक्यं स ऋषि:) का व्यक्तित्व । देवता का भाव है – प्रकृति की किस शक्तिधारा को लक्ष्य करके बात कही गयी है (या तेनोच्यते सा देवता) । छन्द का अर्थ है कि इसमें काव्यात्मकता किस शैली की है ( यद् अक्षरपरिमाणं तच्छन्दः – ऋ० सर्वा० २.६) ।
ऋषि – यह अभिव्यक्ति किसकी है, यह बात बहुत महत्त्व रखती है। ‘मत्सम: पातकी नास्ति’ (मेरे जैसा पापी कोई नहीं) यह वाक्य किसी अपराधी या कुण्ठित व्यक्ति का है तो बात और है; किन्तु जब जगद्गुरु आचार्य शंकर यह वाक्य बोलते हैं, तो अध्येता एकदम चौंकता है । आचार्य के स्तर को वह जानता है, इसलिए वाक्य का अर्थ हीन प्रसंग में नहीं, उच्च आध्यात्मिक संदर्भ में निकालता है । यदि वक्ता का स्तर पता न हो, तो गूढ़ उक्तियों के बारे में मतिभ्रम स्वाभाविक है। वेद गड़रियों के गीत हैं या तत्त्वदर्शियों के कथन ? इस अवधारणा से हमारी अन्त: -चेतना की जागरूकता में जमीन-आसमान जितना अंतर पड़ जाता है।
देवता – प्रत्येक गढ़ क्रिया के मूल में स्थित दिव्य शक्ति प्रवाह की समझे बिना सूत्र कैसे समझ में आ सकते हैं । किसी देवता से यह प्रार्थना करें कि ‘हे देव! सैकड़ों योजन दूर उत्पन्न ताप को लाकर हमारा आवास गर्म कर दें।’ तो यह बात पागल का प्रलाप जैसी लगेगी; किन्तु विद्युत् के शक्ति प्रवाह को ‘देवता’ कहकर यह प्रार्थना की जाए तो एक सर्वमान्य सत्य प्रकट होता है। दूरस्थ ताप विद्युत् गृह में जल रहे कोयले की गर्मी से हमारे घर गर्म होते ही हैं। अस्तु ऋषि जिस देवता (शक्तिधारा) को लक्ष्य कर रहे हैं, उसका आभास हुए बिना उक्ति निरर्थक लगती है। किसी ने सूर्य या अग्नि से भयभीत होकर प्रार्थना की है अथवा उस दिव्य कल्याणकारी देवशक्ति का साक्षात्कार करके सूत्र दिये हैं ? इस मान्यता से चिन्तन का आधार ही बदल जाता है।
छन्द -काव्य के छन्द विशेष में किसी भाव विशेष को व्यक्त करने की सामर्थ्य होती है। वीर रस के छन्द से करुण रस के भाव नहीं जगते । छन्द की सामर्थ्य शब्दों से भिन्न है। वे भावों को स्पष्ट करने में कहीं-कहीं शब्दों से अधिक प्रभावी सिद्ध होते देखे जाते हैं । अस्तु भावों की गहराई तक पहुँचने में छन्द भी सहायक होते हैं । ‘चीटी पाँवे हाथी बाँध्यो’ उक्ति सामान्य रूप से एक उपहास जैसी लगती है; किन्तु यह कबीर की उलटबासी है, यह सोचते ही बद्धि के कपाट स्वत: खुल जाते हैं।
अधिकार – अधिकार सम्बन्धी बात भी अनुशासनपरक ही है। किसी अनभवी से उसके अनुभव प्राप्त करने के लिए उसके अनुशासन में दीक्षित (संकल्प पूर्वक प्रवृत्त) होना पड़ता है। ब्राह्मी चेतना के अनुशासन को समझकर तदनुसार जीवन जीने के संकल्प के साथ समर्थ गुरु का वरण करने पर साधक को ‘द्विज’ संज्ञा दी जाती थी। ‘द्विज’ का अर्थ होता है-दुबारा जन्म लेने वाला। माँ के गर्भ से शरीर के जन्म के साथ शारीरिक शक्तिधाराओं का विकास होने लगता है। जब साधक अन्त:करण का शाक्तधाराओं के विकास के लिए समर्थ गुरु से जुड़ता है, तब वह उसका दूसरा जन्म कहलाता है। वेद ब्रह्मविद्या के संवाहक हैं। उन्हें समझने के लिए ब्रह्मनिष्ठ जीवन का संकल्प आवश्यक है।
उक्त संदर्भ में द्विजों को ही वेद अध्ययन फलेगा, यह बात विवेकसंगत एवं सार्थक है। जन्म-जाति विशेष से उसे जोड़ने से ही भ्रम फैले हैं। वे प्रसंग सर्वविदित है कि ‘जाबाला’ के पुत्र सत्यकाम तथा इतरा के पुत्र ऐतरेय को ब्रह्मविद्या में प्रवेश भी मिला और वे ऋषि स्तर तक पहुँचने में सफल भी हुए। इसलिये किसी को जन्म-जाति गत भ्रमों में न उलझ कर पात्रता के विकास द्वारा वेदाधिकार प्राप्त करने का करना चाहिए।
वेद ज्ञान को ऋषियों ने नेति-नेति कहकर श्रद्धा व्यक्त की है। उसे पूरा न समझ पाने से नही निराश होना चाहिए और न उसे निरर्थक कहकर तिरस्कृत करना चाहिए । निरुक्तकार यास्क ने भी वेद के लगभग ४०० ऐसे शब्द गिनाये, जिनका अर्थ उन्हें नहीं पता था। जब शब्दार्थ का यह हाल है तो भावार्थ तो और भी गूढ़ होते हैं। वे तो साधना के अनुपात से ही खुलते हैं । अस्तु, विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि ऋषियों के निर्धारित अनुशासन के अनुसार वेद का अध्ययन करने वालों को वेद भगवान के अनुग्रह से जीवनोपयोगी सूत्र प्राप्त होते रहे । और सदैव प्राप्त होते रहेंगे।
वेद में प्रतीक एवं रूपक
वेद में जिन पात्रों का उल्लेख होता है, वे रूपक के रूप में प्रयुक्त हैं। उन्हें शरीरधारियों से जोड़ने के प्रयास में हर जगह सफलता नहीं मिलती। ऐसा मानने से वेद की स्वाभाविक गरिमा की रक्षा भी नहीं हो पाती। अस्तु, वे वेद के पात्र भले ही लौकिक संदर्भ में भी सिद्ध हो जाते हैं; किन्तु उन्हें वहीं तक सीमित नहीं रखा जा सकता। उनका प्रयोग रूपक के रूप में करने से ही बात बनती है। जैसे- ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में कहा गया है- सुरूपकृत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे। जुहूमसि द्यविद्यवि (ऋ० १.४.१) । (गोदोहन करने वाले के द्वारा) प्रतिदिन मधुर दूध प्रदान करने वाली गाय को जिस प्रकार बुलाया जाता है, उसी प्रकार हम अपने संरक्षण के लिए सौंदर्यपूर्ण यज्ञकर्म सम्पन्न करने वाले इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं। इसी प्रकार इन्द्र के संदर्भ में कहा गया है कि वे सभी रूपों को बनाने वाले हैं और दुहने वाले के लिए भरपूर दूध देने वाली गौ के समान हैं- इन्द्र को गौ की तरह दुहा जा सकता है, तो वे इन्द्र कोई पुरुष तो नहीं ही हो सकते, किसी शक्तिधारा के रूप में ही उन्हें समझा-जाना जा सकता है। इससे भी बढ़कर कहा जाता है:- वही गौ है, वही अश्व है- इन्द्रो वा अश्वः (कौषी० बा० १५.४); (इन्द्र अश्व रूप हैं।) इन वाक्यों का सही अर्थ निकालने के लिए गौओं-अश्वों और इन्द्र को शक्ति-प्रवाहों के रूप में ही स्वीकार करना पड़ेगा।
अस्तु, वेदों के प्रतीकवाद को दृष्टिगत रखकर ही वेदमंत्रों का ठीक-ठीक अर्थ किया जा सकता है। बाह्मण ग्रन्थों में भी इस दृष्टिकोण का समर्थन किया गया है। उन्होंने ऋषियों एवं देवताओं को ‘प्राण की धाराएँ’ अर्थात् चेतनायुक्त शक्ति माना है। के तऽऋषय इति प्राणा वाऽ ऋषयस्ते। “वे ऋषि कौन थे? प्राण ही वे ऋषि थे” (शत० ब्रा० ६.१.१.१), प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिर्यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठो। ” प्राण ही वसिष्ठ ऋषि हैं। श्रेष्ठ होने से वसिष्ठ कहा गया है” (शत० ब्रा०८.१.१.६), प्राणा वै देवा: “प्राण ही देव हैं” ( शत० ब्रा० ६.७.२.३), कतम एको देव इति प्राण इति – एक देव कौन है ? ‘प्राण'( शत० बा०११.६.३.१०)।
श्री अरविन्द ने वेदरहस्य में विभिन्न उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि वेद के पात्र गुह्य रूपकों के रूप में ही समझे जा सकते हैं । वेद के मूल उद्देश्य के बारे में उनका कथन है कि वेद का केन्द्रभूत विचार है- “अज्ञान के अन्धकार में से सत्य की विजय करना और सत्य की विजय के साथ ही अमरता की भी विजय कर लेना; क्योंकि वैदिक ‘ऋतम् ‘ जहाँ मनोवैज्ञानिक विचार है, वहाँ आध्यात्मिक विचार भी है। यह ‘ऋतम्’ परमात्म सत्ता का सत्, सत्य चेतन और सत्य आनन्द है, जो इस शरीररूपी पृथ्वी इस प्राण शक्तिरूप अन्तरिक्ष एवं मनरूप सामान्य आकाश या द्यौ से परे है। हमें इन सब स्तरों को पार कर आगे जाना है ताकि हम उस पराचेतन सत्य के उच्चस्तर में पहुँच सकें, जो देवों का स्वकीय घर है और अमरता का मूल है।”
श्री अरविन्द का मत है कि इस यात्रा में सहायक शक्तियाँ देवता एवं ऋषिगण हैं तथा उक्त यात्रा में बाधक-अवरोधक शक्ति धाराएँ दस्यु-दानव आदि है। विभिन्न पात्रों-रूपकों के सन्दर्भ में उनके निष्कर्ष कुछ इस प्रकार हैं– अंगिरस् और वृत्र ऐसे रूपक है, जो वेद में बार-बार आते हैं- इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा (ऋ०१.५३.७), वृत्रस्य यद् बद्धानस्य रोदसी (ऋ० १.५२.१०) । उन्होंने अग्नि को दिव्यज्ञान से उद्दीप्त वह ज्वाला कहा है, जो सत्य एवं अमरत्व की यात्रा अथवा संघर्ष में विजय के लिए प्रज्वलित की जाती है- कविर्देवानां परिभूषसि व्रतम् (ऋ० १.३१.२), स्वग्नयो हि वार्य देवासो (ऋ०१.२६.८), रुक्मी त्वेष: समत्सु (ऋ० १.६६.६)। अंगिरस् उस ज्वाला को प्रज्वलित करने वाली द्रष्टा संकल्प की शक्तियाँ हैं।
वृत्र, पणि, दस्यु आदि उक्त यात्रा में बाधा पहुँचाने वाली हीन शक्तियों को कहा गया है, जैसे – इन्द्रो यद् वृत्रमवधीन्नदीवृतं (ऋ०१.५२.२), निरुद्धा आप: पणिनेव गावः (ऋ०१.३२.११)I बृहस्पति सर्जनकारी शब्द के अधिपति हैं- मन्द्रजिह्व बृहस्पतिं वर्धया (ऋ० १.५९०.१) । सरस्वती को दिव्य शब्द की धारा या सत्य की अन्त:प्रेरणा कह सकते हैं- महो अर्ण: सरस्वती पचेतयति केतुना । धियो विश्वा वि राजति (ऋ० १.३.१२) । उषा दिव्य अरुणोदय है, वह दिव्य स्फुरणा है, जिसके पीछे पराचेतन सत्य का सूर्य उदित होता है- व्यञ्जते दिवो अन्तेष्वक्तन् विशो न युक्ता उषसो यतन्ते। सं ते गावस्तम आ वर्तयन्ति ज्योतिर्यच्छन्ति सवितेव बाहू (ऋ० ७.७९.२) अर्थात् उषा देवियाँ अपने तेज को अन्तरिक्ष में फैलाती हैं एवं प्रजाओं की तरह परस्पर मिलकर अन्धकार विनष्ट करने की चेष्टा करती हैं और सूर्यदेव की भुजा रूपी किरणों की ज्योति द्वारा अन्धकार का विनाश करती हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि गौ दिव्य ज्ञान की वे रश्मियाँ हैं, जो सत्य का बोध कराती हैं। अश्व उस सनातन सत्य की संचरण क्षमता है। घृत गौओं- दिव्य किरणों से उत्पन्न वह तेजस् है, जो आत्मशक्ति को -देव शक्तियों को पुष्ट बनाता है। उस पराचेतन सत्य का प्रवाह अखण्डित रहता है, तो देवशक्तियों का उद्भव और विकास होता है; इसलिए अदिति (जो खण्डित नहीं) देवों की माता है। इसके विपरीत इस दिव्य प्रवाह के खण्डित होने से अज्ञान-भ्रम आदि दोषों की उत्पत्ति होती है। अस्तु, दिति (खण्डित होने वाली) दैत्यों की माता है।
अश्व (शक्ति-प्रवाहो) तथा गौ (प्रकाश देने वाली पोषक धाराओं) का अपहरण दानव कर लेते हैं, तब आर्यों (दिव्य अनुशासन का अनुगमन करने वालो) के हित में इन्द्र, मरुत्, मित्र, वरुण आदि देव शक्तियाँ युद्ध करती हैं। वे दानवो (अनृत-अज्ञान-पाप की शक्तियों) के दुर्ग को तोड़कर गौओं और अश्वों को मुक्त कराते हैं।
अश्विनीकुमारों को जुड़वाँ (यमल) माना गया है। उन्हें देववैद्य की संज्ञा भी प्राप्त है। अश्विनी का अर्थ होता है- अश्वों (किरणों) से युक्त । उन्हें आनन्द, आरोग्य एवं पुष्टिदायक कहा गया है। आरोग्य एवं पुष्टि देने वाले दो प्रवाह प्रकृति में एक साथ उपलब्ध हैं-
१.पदार्थों, जल, अन्न, वनस्पतियों आदि में आरोग्य एवं पुष्टि भरने वाले अन्तरिक्षीय प्रवाह तथा
२. पदार्थों से उभरने वाले आरोग्य एवं पुष्टिदायक प्रवाह।
ये दोनों प्रवाह एक साथ रहने वाले अभिन्न होते हुए भी अपनी अलग-अलग विशिष्टताएँ भी रखते हैं- प्रवां निचेरुः ककुहो वशाँ अनु पिशङ्गरूप: सदनानि गम्या: । हरी अन्यस्य पीपयन्त वाजैर्मध्ना रजांस्यश्विना वि घोषैः (ऋ ० १.१८१.५) ‘हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों में से एक का पीतवर्ण युक्त (सूर्य के समान स्वर्णिम) तथा सर्वत्र गमनशील रथ, इच्छित दिशाओं एवं आवासों में पहुँचता है। दूसरे का,मन्थन से उत्पन्न घोड़े (अग्नि) अन्नों एवं उद्घोषों (मन्त्रों ) सहित सम्पूर्ण लोकों को पुष्टि प्रदान करते हैं।’ वेद मन्त्रों के अर्थ ऐसे प्रतीकात्मक अनुभूतिजन्य रूपकों के आधार पर ही समझे जा सकते हैं।
वेद एवं यज्ञ
वेद एवं यज्ञ का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। यज्ञ का कर्मकाण्ड पक्ष ही लें, तो भी देव पूजन के क्रम में ऋग्वेद के मन्त्रों से स्तुतियाँ करने, यजुर्वेद के मंत्रों से यजन प्रयोग करने, सामगान द्वारा यज्ञीय उल्लास को संवर्धित और प्रसारित करने तथा अथर्ववेद से स्थूल-सूक्ष्म परिष्कार की वैज्ञानिक प्रक्रिया चलाने की मान्यता सर्वविदित है। यदि यज्ञ का विराट रूप लें, तो पुरुष सूक्त के अनुसार उस विराट् यज्ञ द्वारा ही सृष्टि का निर्माण हुआ तथा उसी से उसके पोषण का चक्र चल रहा है। उसी विराट् यज्ञीय प्रक्रिया के अंतर्गत सृष्टि के संचालन एवं पोषण के लिए उत्कृष्ट ज्ञान-वेद का प्रकटीकरण हुआ। यथा- ततो विराळजायत विराजो अधिपूरुषः। सजातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः (ऋ० १०.९०.५) अर्थात्-‘ उस विराट् पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उसी से समस्त जीव प्रकट हुए। देह-धारियों के रूप में वही श्रेष्ठ पुरुष स्थित है। उसने पहले पृथ्वी और फिर प्राणियों को उत्पन्न किया। ‘तस्मात् यज्ञात् सर्वहुत ऽऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तमादजायत (ऋ० १०.९०.९) उस विराट् यज्ञ पुरुष से ऋग् एवं साम का प्रकटीकरण हुआ। उसी से छन्दों की और यजु एवं अथर्व की उत्पत्ति हुई।
वेद यज्ञीय प्रक्रिया से प्रकट हुए हैं और यज्ञीय अनुशासन में जीवन को गतिशील बनाने के लिए हैं। वेद मंत्र परा-चेतन और प्रकृतिगत गूढ़ अनुशासनों-रहस्यों का बोध कराते हैं। उन्हें समझकर ही प्रकृतिगत चेतन प्रवाहों तथा स्थूल- पदार्थों का प्रगतिशील एवं कल्याणकारी प्रयोग किया जाना सम्भव है, जैसे अग्नि या विद्युत् के स्वाभाविक गुण-धर्मों को समझे बिना व्यक्ति उनका उपयोग भली प्रकार नहीं कर सकता। अग्नि को धारण करने के लिए अज्वलनशील (नॉनइन्फ्लेमेबिल) पदार्थ ही चाहिए तथा उसे प्रज्वलित रखने के लिए ज्वलनशील (इन्फ्लेमेबिल) पदार्थों की ही संगति बिठानी पड़ेगी। विद्युत् को इच्छित उपकरणों तक ले जाने के लिए विद्युत् सुचालक (इलैक्ट्रिकल कंडक्टर्स) तथा फैलकर नष्ट हो जाने से बचाने के लिए विद्युत् कुचालक (इलैक्ट्रिकल इन्सुलेटर्स) का व्यवस्थित क्रम बिठाना अनिवार्य है। जो व्यक्ति विद्युत् एवं पदार्थों का गुणधर्म ही नहीं समझता, वह कैसे विद्युत् तंत्र (इलैक्ट्रिकल नैटवर्क) स्थापित कर सकता है?
अस्तु, वेद ने प्रकृति के गूढ़ तत्त्वों को प्रकट करते हुए कहा है कि ये प्रवाह एवं पदार्थ यज्ञार्थ हैं, इन्हें यज्ञीय अनुशासनों में प्रयुक्त करने से सत्पुरुष, देवों के समान ही स्वर्गीय परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसी यज्ञीय आचरण प्रणाली को उन्होंने यज्ञ कहा- यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवाः। (३०१०.९०.१६) “ देवों ने यज्ञ (प्रक्रिया) से या (विराट् पुरुष जिनका धर्मकृत्यों में प्रथम स्थान है) का यजन किया। (जो सत्पुरुष) इस पूर्व प्रयुक्त प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, वे देवों के आवास स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं।” उक्त संदर्भोँ से स्पष्ट होता है कि वेदोक्त ‘यज्ञ’ मात्र अग्निहोत्र परक कर्मकाण्ड ही नहीं है, वह स्रष्टा के अनुशासन में भावना, विचारणा, पदार्थ एवं क्रिया के संयोग से उत्पन्न होने वाला एक अद्भुत पुरुषार्थ है। वेद में इसके अनेक रूप परिलक्षित होते हैं–
पहला यज्ञ, पराचेतन (विराट् पुरुष या ब्रह्म) के संकल्प से सृष्टि के उद्भव के रूप में दिखाई देता है।
दूसरा स्वरूप यज्ञ का वह है, जिसके अन्तर्गत उत्पन्न स्थूल एवं सूक्ष्म तत्त्व, अनुशासन विशेष का अनुपालन करते हुए सृष्टि चक्र को सतत प्रवहमान बनाये हुए हैं।
यज्ञ का तीसरा स्वरूप यह है कि जिस क्रम में प्राणि जगत् प्रकृति के प्रवाहों को आत्मसात् करते हुए उत्पन्न ऊर्जा से स्वधर्मरत रहता है और प्रकृतिगत यज्ञीय प्रवाहों को अस्त-व्यस्त नहीं होने देता।
मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले कर्मकाण्ड युक्त देवयज्ञ उस वैज्ञानिक प्रक्रिया के अंग है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य प्रकृति के पोषक प्रवाहों को पुष्टि प्रदान करने का प्रयास करता है। यह यज्ञ का चौथा स्वरूप है।
अब प्रश्न उठता है कि इस यज्ञीय कर्मकाण्ड के लिए ऋषियों ने मनुष्यों को क्यों प्रेरित किया? जब कि अन्य प्राणियों से यह अपेक्षा नहीं की जाती। सभी प्राणी प्रकृतिमत प्रवाहों का स्वाभाविक उपयोग करते हुए अपना निर्वाह भर करते रहते हैं। उनमें से कोई भी ‘प्रकृति का दोहन’ नहीं करता। मनुष्य में प्रकृति का दोहन करने की क्षमता है। उसका दायित्व बनता है कि यदि प्रकृति का दोहन करता है, तो उसके पोषण के भी विशेष प्रयास करे। हर मादा अपने बच्चों के पोषण के लिए दूध उत्पन्न करती है। यदि मनुष्य ‘गाय’ का दोहन अपने लिए करता है, तो उसका दायित्व बनता है कि गाय के पोषण की ऐसी व्यवस्था भी बनाये, जिससे दोहन के बाद भी उसके बच्चे के लिए पर्याप्त दूध पैदा होता रहे।
आज मनुष्य प्रकृति का केवल दोहन ही करना चाहता है, उसके पोषण के दायित्व और उसकी उपयुक्त प्रक्रिया दोनों को वह भुला चुका है। यही कारण है कि मनुष्य को प्रकृतिगत असंतुलन (इकॉलाजिकल अनबैलेन्सिंग) के कारण उत्पन्न प्रदूषण से लेकर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प जैसे प्राकृतिक विप्लवों को दण्ड के रूप में झेलना पड़ रहा है। वेद द्वारा निर्दिष्ट यज्ञीय जीवन शैली अपनाकर मनुष्य परम पिता के प्रतिनिधि के रूप में अपनी स्थूल एवं सूक्ष्म सामर्थ्यो के यज्ञीय सुनियोजन से भूमण्डल पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है।
यज्ञ के विवादित प्रसङ्ग
यज्ञीय प्रक्रिया का विशेष उल्लेख तो यजुर्वेद खण्ड में किया गया है। अस्तु, उससे सम्बन्धित भ्रान्तियों का समाधान भी उसी मे दिया गया है, किन्तु यज्ञ और वेद परस्पर एक दूसरे से गुँथे हुए हैं । इसलिए उससे सम्बन्धित समाधानों का आवश्यक उल्लेख यहाँ भी किया जा रहा है।
यह तथ्य ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि वेद में यज्ञ, अग्निहोत्र परक कर्मकाण्ड से परे और भी बहुत कुछ है। वेदार्थ के क्रम में उन सभी सन्दर्भो में दृष्टि खुली रखनी चाहिए।
मेध :- मेध शब्द को लेकर अनेक भ्रान्तियाँ फैली हई हैं । वेद में यह शब्द बार-बार प्रयुक्त भी हुआ है, इसलिए उस सन्दर्भ में दृष्टि स्पष्ट कर लेनी चाहिए। निघण्टु में यज्ञ के १५ (पन्द्रह) नाम गिनाए गये हैं, उनमें एक नाम ‘मेध’ भी है। अस्तु वेद में मेध’ का अर्थ ‘यज्ञ’ ही मानना उचित है।
यहाँ लोग यज्ञ में ‘मेध’ का अर्थ ‘हिंसा’ करने का प्रयास करते हैं, किन्तु स्मरणीय है कि निघण्टु में यज्ञ का एक नाम ‘अध्वर’ (हिंसा रहित कर्म) भी है। अस्तु, हिंसा रहित कर्म में मेध का अर्थ हिंसा परक करना अनुचित है।
‘मेध’ का व्याकरण परक अर्थ होता है- (मेधा हिंसनयोः संगमे च) मेधा संवर्धन, हिंसा एवं एकीकरण- संगतिकरण । अध्वर के नाते हिंसापरक अर्थ अमान्य कर देने पर मेधा संवर्धन तथा एकीकरण-संगतिकरण ही मान्य अर्थ रह जाते हैं, जो यज्ञ एवं वेद दोनों की गरिमा के अनुरूप हैं।
वेदोक्त यज्ञीय सन्दर्भ में ‘बलि’ एवं ‘आलभन’ यह दो शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जिनके हिंसापरक अर्थ करने के प्रयास किये जाते हैं। मेध की तरह उनका भी एक अर्थ यदि हिंसापरक है, तो भी ‘अध्वर’ हिंसा रहित कर्म में हिंसा परक अर्थ नहीं किये जाने चाहिए। उनके शेष अर्थों के साथ यज्ञीय संगति बहुत ठीक बैठ जाती है।
बलि – यह शब्द बल्- इन् से बना है, जिसके कई अर्थ होते हैं, जैसे-(१) आहुति, भेंट, चढ़ावा (२) भोज्य पदार्थ अर्पित करना। प्रचलन की दृष्टि से देखें तो भी उक्त भाव ही सिद्ध होते हैं- सद्गृहस्थ के नित्यकर्मों में बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान है। उसके अन्तर्गत भोज्य पदार्थों को यज्ञार्थ अर्पित किया जाता है, किसी प्रकार की हिंसा की प्रक्रिया प्रचलित नहीं है। श्राद्ध कर्म में गो बलि, कुक्कुर बलि, काक बलि, पिपीलिकादि बलि आदि का विधान है। उसके अन्तर्गत सम्बन्धित प्राणियों का वध नहीं किया जाता, उनके लिए भोज्य पदार्थ ही भेंट किया जाता है।
आलभन – इसका भी हिंसा परक अर्थ छोड़ देने पर अन्य अर्थ होते हैं,स्पर्श करना, प्राप्त करना आदि । ‘ब्रह्मणे ब्राह्मणं आलभेत । क्षत्राय राजन्यं आलभेत’ (यजु० ३०.५) का अर्थ हिंसा परक करने से होता है, ब्राह्मणत्व के लिए ब्राह्मण का वध करे और क्षात्रत्व के लिए क्षत्रिय का वध करे। यह अर्थ सर्वथा असंगत लगता है । विवेक संगत अर्थ होता है – ब्राह्मणत्व के लिए बाह्मण तथा शौर्य के लिए क्षत्रिय को प्राप्त करे या संगति करे। अस्तु, यज्ञ एवं वेद की गरिमा परक स्वाभाविक अर्थों को ही लिया जाना चाहिए।
यज्ञीय कर्मकाण्ड के अन्तर्गत अश्वमेध, गोमेध, नरमेध, पितृमेध आदि प्रकरणों की संगति ऊपर वर्णित सिद्धान्तों के आधार पर ही ठीक प्रकार बैठती है। इन प्रकरणों का उल्लेख यजुर्वेद में विशेषरूप से किया गया है। यहाँ तो मात्र इतना आग्रह किया जा रहा है कि सुधीजन वेदार्थ के क्रम में यज्ञ की विराट् प्रक्रिया को ही ध्यान में रखकर चलें।
वैदिक स्वर
वैदिक ऋचाओं में अक्षरों के ऊपर और नीचे विभिन्न प्रकार की खड़ी और आड़ी रेखाएँ देकर उनके नियमानुसार अक्षरों के उच्च, मध्यम एवं मन्द स्वर में उच्चारित करने के नियम विद्वान् ऋषियों ने बनाये हैं। इन्हें स्वर कहा जाता है। इनको तीन भागों में बाँटा गया है-१. उदात्त २. अनुदात्त और ३. स्वरित; किन्तु इनमें से भी प्रत्येक स्वर अधिक या न्यून रूप में बोला जा सकता है । इसीलिए हर एक के दो-दो भेद हो जाते हैं, जैसे- उदात्त-उदात्ततर, अनुदात्त-अनुदात्ततर, स्वरित-स्वरितोदात्त । इन स्वरों के अलावा एक स्वर और माना गया है- ‘एक श्रुति,’ इसमें तीनों स्वरों का मिलन हो जाता है। इस तरह से इनकी संख्या सात मानी गई है । इन स्वरों की व्याख्या भाष्यकार पतंजलि ऋषि ने *’ स्वयं राजन्त इति स्वराः’* इत्यादि शब्दों में विस्तार से की है। इन सात भेदों में भी एक-दूसरे का आपस में मिलन होने से कई तरह के भेद हो जाते हैं, जिनके लिए स्वर चिह्नों में कुछ परिवर्तन किया जाता है ।।
स्वरों के लिए जिन चिह्नों को प्रयोग में लाया जाता है, उनके सम्बन्ध में भी बड़ा मतभेद दिखाई पड़ता है । सामान्यत: अनुदात्त के लिए अक्षर के नीचे आड़ी लकीर देने तथा स्वरित के लिए अक्षर के ऊपर खड़ी रेखा बनाने का नियम है। उदात्त का अपना कोई चिह्न नहीं, उसका इन्हीं दो स्वरों की स्थिति के अनुरूप उच्चारण किया जाता है; ये चिह्न भी प्रत्येक स्थान में एक से नहीं हैं। इस विषय में स्वर शास्त्र की खोज करने वाले एक विद्वान् श्री युधिष्ठिर मीमांसक ने अपनी पुस्तक में लिखा है – ‘वैदिक वाङ्मय के जितने ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, उनमें उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों का अंकन एक जैसा नहीं है। उनमें परस्पर अत्यन्त वैलक्षण्य है। एक ग्रन्थ में जो स्वरित का चिह्न देखा जाता है, वही दूसरे ग्रन्थ में उदात्त का चिह्न माना जाता ह। इसी प्रकार किसी ग्रन्थ में जो अनुदात्त का चिह्न है, वह अन्य ग्रन्थ में उदात्त का चिह्न हो जाता है । ‘सामसंहिता’ का स्वरांकन प्रकार सभी से विलक्षण है । उसके पदपाठ का स्वरांकन संहिता के स्वरांकन से भी पूर्णरूपेण मेल नहीं खाता है। इसीलिए वेद के पाठक को पदे-पदे संदेह और कठिनाई उपस्थित होती है’।
इन तथ्यों के अतिरिक्त स्वर-चिह्न युक्त छपी वेद की पुस्तकों में एक नई समस्या प्रेस सम्बन्धी हमारे अनुभव में आई है। इनके कारण एक सामान्य पाठक के लिए मन्त्रों के पढ़ने में असुविधा होती है और अनेक बार वे गलती कर जाते हैं। इसी प्रकार जिस अक्षर के नीचे अनुदात्त’ की आड़ी रेखा लगाई गई है और उसमें ‘छोटे उ’ की मात्रा भी लगी हो तो वह भी प्राय: आँखों से ओझल हो जाती है।
उक्त कारणों से हमने प्रस्तुत संस्करण में स्वर चिह्नों का प्रयोग नहीं किया है। इनकी आवश्यकता सस्वर वेद पाठ करने में होती है और इस कार्य के लिए कई स्थानों से मूल संहिता की पुस्तकें छपी हैं। हमारा मुख्य उद्देश्य वेदों के पठन-पाठन को प्रेरणा देने का है, जिससे सामान्य से सामान्य लोग भी इस सार्वभौम धर्म के इस “मूल” को स्वयं पढ़ कर तात्पर्य समझ सकें।
इस प्रकार “स्वरों” का परित्याग कोई नई बात नहीं है, आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व बिहार की एक धार्मिक संस्था की ओर से ‘ऋग्वेद’ का भाष्य आठ खण्डों में प्रकाशित किया गया था, जिसके लेखक “भारत धर्म महामण्डल” के महोपदेशक पं० रामगोविन्द वेदान्त शास्त्री थे। आप ने असामयिक जानकर उसमें स्वरों का प्रयोग नहीं किया था। ठीक इसी प्रकार अहमदाबाद के परमहंस श्री भगवदाचार्य ने सामवेद संहिता का भाष्य बिना स्वरों के ही किया था। प्राचीन काल में भी उपनिषद् आदि ग्रन्थों में जहाँ वेद-मंत्रों के उद्धरण दिये हैं,वहाँ स्वर चिह्न नहीं लगाये गये हैं। इन सभी का सबसे स्पष्ट उदाहरण तो “ईशावास्योपनिषद्” है, जो पूर्णत: “यजुर्वेद” के अन्तिम अध्याय की प्रतिलिपि है, जिसे सभी जगह बिना स्वर चिह्नों के ही लिखा व छापा गया है।
वैदिक साहित्य का वर्गीकरण
‘वेद’ ज्ञान निधि के समुच्चय हैं, जिन्हें ऋषियों ने अपनी अन्त: प्रज्ञा से प्रकट किया है। वह वेदराशि स्वरूप भेद के कारण वस्तुत: चार विभागों में प्रविभक्त है -संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् । संहिता में वैदिक स्तुतियाँ संग्रहीत हैं । ब्राह्मण में मंत्रों की व्याख्या तथा तत्समर्थक – प्रतिपादक प्रवचन हैं, आरण्यक में वानप्रस्थ आश्रम में कर्मरत लोकसेवियों के लिए उपयोगी अरण्यगान व विधि-विधान हैं तथा उपनिषदों में दार्शनिक व्याख्याओं का प्रस्तुतीकरण है। कालक्रम के प्रवाह में इस वर्गीकरण का लोप हो जाने से इनमें से प्रत्येक को स्वतन्त्र इकाई मान लिया गया और आज यह स्थिति है कि वेद शब्द सिर्फ संहिता के अर्थों में प्रयुक्त होता है। इन संहिताओं में ऋक् को प्रार्थना, यजुष् को यज्ञ-यागादि विधान, साम को शांति-मंगलमयगान तथा अथर्व को धर्म दर्शन तथा लोक जीवन के लिए उपयोगी जानकारी-परक माना जाता है।
एक मान्यता यह भी रही है कि वेद पहले एक ही संहिता में थे, बाद में महर्षि वेदव्यास ने उसे चार भागों में वर्गीकृत किया। वेदों का वर्गीकरण करने के कारण ही उन्हें वेदव्यास कहा गया – ( वेदान् विव्यास यस्मात् स वेदव्यास इति स्मृत: – महा० १.६३.८८)। इस आधार पर वेदों के वर्ण्य-विषय के सन्दर्भ में श्रीमद्भागवत का यह श्लोक उद्धृत किया जाता है- ऋक्-यजुः-सामाथर्वाख्यान्वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः शस्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात् क्रमात् (श्रीमद्भागवत ३.१२.३७)। अर्थात् ऋक् का विषय है- शस्त्र (होता द्वारा सामान्य ढंग से प्रयुक्त किये जाने वाले मन्त्र), यजु: का विषय है – इज्या (यज्ञ कर्म), साम का विषय है-स्तुतिस्तोम (गेय ऋचाएँ) तथा अथर्व का विषय है-प्रायश्चित्त (साधकों के निमित्त आन्तरिक एवं बाह्य शोधन- प्रक्रिया के उपचार सूत्र) ।
इस सन्दर्भ में अनके विद्वानों का कथन यह है कि महर्षि व्यास के पिता, पितामह सभी वेद चतुष्टयी के ज्ञाता थे। ‘पुरुषसूक्त’ ऋ०१०.९०९ तथा यजु०३१. ७ में कहा गया है-
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।
पुरुषसूक्त’ ऋ०१०.९०९ तथा यजु०३१. ७
अर्थात्- ‘उस विराट् यज्ञ पुरुष से ऋक, साम आदि प्रकट हुए। उसी से यजु, अथर्वादि के छन्दों का प्रकटीकरण हुआ। अस्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि वेद का यह विभागक्रम भी अति-प्राचीन है। सम्भव है, इस विभाग क्रम का संशोधित रूप वेदव्यास ने दिया हो।
एक प्रश्न यह भी उठाया जाता है, कि वेदत्रयी है कि वेदचतुष्टयी? इसे यों समझ सकते हैं कि ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार आकाश का विभाजन २७ नक्षत्रों के रूप में भी है और १२ राशियों के रूप में भी । वर्गीकरण के अपने-अपने ढंग हैं। वेद की चार संहिताओं के सम्बन्ध में ऊपर उल्लेख किया ही जा चुका है। वेदत्रयी की मान्यता इस प्रकार है-
(१) पद्यात्मक मन्त्रों को ऋचा कहा गया है- तेषामृग् यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था*? (जै० सू० २.१.३५)I
(२) यजु गद्यात्मक हैं। उनमें वर्गों की संख्या का कोई बन्धन नहीं है ( गद्यात्मको यजुः। अनियताक्षरावसानो यजुः** ) ।
(३) साम गान परक है ‘गीतिषु सामाख्या (जै० सू०२.१.३६)। उसमें ऋचाओं को संगीत विद्या के साथ जोड़कर अधिक सरस तथा अधिक प्रभावशाली बनाया गया है।
वेद के सभी मंत्र पद्य, गद्य एवं गान इन्हीं तीन धाराओं में विभक्त हैं, इसीलिए उसे वेदत्रयी कहा जाता है। वेद की चारों संहिताओं के मन्त्रों के वर्गीकरण भिन्न-भिन्न ढंग से किये गये हैं।
वैदिक वाङ्ग्मय का नव्य भारत में अनुशीलन
प्रो० मैक्समूलर के प्रयासों के साथ-साथ भारतवर्ष में तत्कालीन समाज में दो समाज सुधारक धार्मिक संगठनों की स्थापना से वैदिक वाङ्मय के पुनरुद्धार के क्षेत्र में एक नया मोड़ आया। एक था राजा राममोहनराय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज तथा दूसरा स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा बनाया गया आर्य समाज। पहला बंगाल में जन्मा, दूसरा गुजरात में। दोनों ने ही वैदिक सिद्धान्तों को हिन्दू अध्यात्म का मौलिक धर्म बताया एवं बहसंख्य भारतीयों का ध्यान आकर्षित किया। राजा राममोहनराय जिन्हें उपनिषदों का एक फटा पन्ना रास्ते चलते मिलने के बाद इस क्षेत्र में अध्ययन की एवं इसके विस्तार की प्रेरणा मिली; राजा राममोहनरायने ब्रह्म समाज के द्वारा औपनिषदिक शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार का तंत्र बनाया। आर्य समाज ने वैदिक संहिताओं के अध्ययन अध्यापन को प्रधानता दी। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद एवं ऋग्वेद के कुछ सूक्तों पर अपनी पद्धति में संस्कृत में भाष्य प्रकाशित किया, जो आज भी प्रामाणिक संदर्भ ग्रन्थ है। शंकर पाण्डुरंग पण्डित ने सायण भाष्य के साथ अथर्ववेद का विशुद्ध संस्करण बम्बई से चार जिल्दों में प्रकाशित किया। लोकमान्य तिलक ने ‘ओरायन’ तथा ‘आर्कटिक होम इन दि वेदाज’ नामक दो समीक्षात्मक ग्रंथ वैदिक साहित्य पर लिखे। मौलिक गवेषणा के कारण आज भी हरेक के लिए वे पठनीय हैं । सामवेद के मार्मिक विद्वान् शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने साम संहिता एवं गान संहिता के पाँच भागों में कलकत्ता से सन् १८७७ ई० में प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित कर वस्तुत: देव संस्कृति की एक बड़ी सेवा की है । श्रीपाद दामोदर सातवलेकर (औंध-सतारा तथा पारडी-बलसाड़) ने चारों वेदों की संहिताओं को श्रमपूर्वक एक विशद् अनुक्रमणिका के साथ स्वाध्याय मण्डल से प्रकाशित कर प्रामाणिक अध्ययन को जन-जन तक पहुँचाया । इसी प्रकार तिलक विद्यापीठ पुणे से पाँच जिल्दों में प्रकाशित ऋग्वेद केसायण भाष्य को विज्ञान सम्मत एवं नितान्त शुद्ध माना जाता है। विशेष रूप से इस कारण कि यह मैक्समूलर के उपलब्ध प्रख्यात संस्करण से भी अधिक शुद्ध है।
वैदिक संहिताओं के भाषानुवाद क्रम में श्री रमेशचन्द्र दत्त का बंगाल में, रामगोविन्द त्रिवेदी एवं जयदेव विद्यालंकार का हिन्दी में तथा श्रीधर पाठक का मराठी में ग्रन्थों का प्रकाशन यहाँ उल्लेखनीय है। इन सभी अनुवादों में एक कमी यह है कि गुह्य अर्थों वाले वैदिक मंत्रों की व्यापकता एवं वैज्ञानिकता का अभाव है। साथ ही वैदिक देवीदेवताओं के विस्तृत अनुशीलन एवं रूपकों की व्याख्या के न हो पाने के कारण इनसे वह मार्गदर्शन नहीं मिल पाता,जो एक जिज्ञासु पाठक को अपेक्षित रहता है । पूज्य गुरुदेव ने आर्ष ग्रन्थों के भाष्य क्रम में सबसे प्रथम संस्करण जो वेदों के अनूदित भाष्य के रूप में लिखा, वह सायण भाष्यावलम्बी सरल हिन्दी भावार्थ के साथ गायत्री तपोभूमि मथुरा से गायत्री जयंती सन् १९६० ई० को प्रकाशित किया। इस भाष्य की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह चारों वेदों पर ८ जिल्दों में प्रकाशित, सरल-सुगम भाषा में अनूदित तथा सर्वांगपूर्ण था ।
वेदों के भाष्यकार
इतिहास के पृष्ठों पर दृष्टि डालने पर भट्ट भास्कर मिश्र, भरत स्वामी वेंकट माधव, उद्गीथ, स्कन्दस्वामी, नारायण, रावण, मुद्गल, उवट, महीधर, सायण आदि अनेक भाष्यकारों के नाम देखने को मिलते हैं; किन्तु उनके भाष्यों पर जब हम गहन दृष्टि डालते हैं, तो एक ही बात समझ में आती है कि वेदों के भाष्य क्रम में जब-जब पाण्डित्य हावी हुआ है , तब-तब वेदों के मर्म व रहस्यों को समझने – समझाने में गड़बड़ी हुई है। यास्क ने एक कोषकार के नाते जो वैदिक शब्दों के अर्थ दिए- वहाँ से लेकर सायण के समय तक अनेकानेक व्यक्तियों ने, भाष्य के प्रयास अपने-अपने ज्ञान एवं विवेक के आधार पर किए हैं। यास्क जहाँ पूर्वकाल के एक ऐसे विद्वान् हैं, जिनने व्याकरण प्रणालियों को आधार बनाकर वैदिक कालीन कोष हमारे समक्ष रखा है, वहाँ सायण की गणना उन उत्तरकालीन पण्डितों में होती है, जिनने एक प्रामाणिक भाष्य हम सबके समक्ष रखा। सायणाचार्य ही एक ऐसे भाष्यकार हैं, जिनके चारों वेदों के भाष्य पूर्णरूप में मिलते हैं और जिनका आधार लेकर ही देश-विदेश के विद्वानों ने वेदों को उस रूप में प्रस्तुत किया है, जैसे कि हम सबको आज दिखाई देते हैं।
यूरोप के प्रारंभकाल के वैदिक विद्वानों से लेकर श्री अरविंद एवं पूज्य गुरुदेव भी सायण द्वारा किये गये वेद भाष्य की भूरि-भूरि सराहना करते हैं। यद्यपि इस भाष्य में कर्मकाण्ड पक्ष की प्रधानता है; परन्तु फिर भी मत्रों के स्पष्ट अर्थों में छिपी सरलता-प्रामाणिकता सायण को एक पण्डित के अतिरिक्त बिना लाग-लपेट वाला एक सरल हृदयी भाष्यकार ठहराती है।
सायण की एक ही कमी रही कि उन्होंने कर्मकाण्ड के साँचे के अन्दर ही वेद के भाष्य को ढाला और एक-एक शब्द का अर्थ उसी परिप्रेक्ष्य में किया । इतने पर भी श्री अरविंद ‘वेद रहस्य’ में लिखते है कि “सायण के ग्रन्थ ने एक ऐसी चाबी का काम किया है, जिससे वेद की शिक्षाओं पर दोहरा ताला लगाने के साथ स्वयं को वैदिक शिक्षा की प्रारंभिक कोठरियाँ खोलने के लिए अत्यन्त अनिवार्य बना दिया है। सायण के भाष्य द्वारा वस्तुत: हम अपने आपको वेद की ऋचाओं के गुह्यतम आंतरिक अर्थ की गहराई में गोता लगाने के योग्य बना पाते हैं।”
चूँकि विदेशी संस्कृति के विद्वानों ने जिनमें वेदों के प्रति जिज्ञासा थी, परन्तु ऋषि प्रज्ञा के अभाव में वैदिक रूपकों को मात्र अपनी विश्लेषणात्मक बुद्धि के सहारे पढ़ने व प्रतिपादित करने की कोशिश की, वे भाष्य के साथ न्याय नहीं कर पाये। यही कारण था कि उन्होंने वेदों को “एक आदिम, जंगली और अत्यधिक बर्बर समाज की स्तोत्र संहिता” नाम दिया। यहाँ तक कहा कि वेद तो “गड़रियों के गीत” मात्र हैं, जो अनगढ़, नैतिक व पुरातन धार्मिक विचारों से भरे हुए हैं।
श्री बाल गंगाधर तिलक (आर्कटिक होम इन द वेदाज), श्री युत टी० परम शिव अय्यर (द ऋक्स्) तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती (ऋग्वेदादि भाष्य०) ऐसे तीन विद्वान हैं, जिनने ऋग्वेद में निहित अर्थों को पाश्चात्य एवं पौर्वात्त्य परिप्रेक्ष्य में तुलनात्मक दृष्टि से देखते हुए उनकी प्राचीनता व विलक्षणता पर अपने विचार व्यक्त किए है।
भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
अथर्ववेद-संहिता परिचय वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा